शांकरभाष्य अध्याय १८
यत्तान्तरम् आस्थाय शिष्यः कृतार्थः कतव्य इसके द्वारा आचार्यका यह कर्तव्य प्रदर्शित किया जाता है कि प्रत्यक्षान्तर स्वीकार करके किसी इति आचार्यधर्मः प्रदर्शितो भवति- भी उपाय, शिष्यको कृतार्थ करना चाहिये- कञ्चिदेतच्छुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा । कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनंजय ।। ७२॥ कञ्चित् किम् एतद् मया उक्तं श्रुतं श्रवणेन हे पाय । क्या तूने मुझसे कहे हुए इस अवधारितं पार्थ किं त्वया एकाग्रेश चेतसा शास्त्रको एकाग्रचित्तले सुना--सुनकर बुद्धिमें स्थिर चित्तेन किं वा प्रमादितम् । किया ? अथवा सुना-अनसुना कर दिया ? कच्चिद् अज्ञानसंमोहः अज्ञाननिमित्तः संमोहो हे धनंजय क्या तेरा अज्ञानजनित मोह-- विचित्तभावः अविवेकता स्वाभाविकः किं स्वाभाविक अविवेकता-चित्तका भूदभाव सर्वथा नष्ट प्रनष्टः । यदर्थः अयं शास्त्रश्रवणायासः तब हो गया, जिसके लिये कि तेरा यह शास्त्रश्रयान- मम च उपदेष्टुत्वायासः प्रवृत्तः ते तव बिषयक परिश्रम और मेरा बक्तृत्वविषयक परिश्रम धनंजय ॥७२॥ अर्जुन उवाच- अर्जुन बोला- नष्टो मोहः स्मृतिलब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये बचनं तव ॥ ७३ ॥ नष्टो मोहः अज्ञानजः समस्तसंसारानर्थहेतुः हे अच्युत ! मेरा अज्ञानजन्य मोह, जो कि सागर इव दुस्तरः। स्मृतिः च आत्मतत्त्व- समस्त संसाररूप अनर्थका कारण था और समुद्रकी भाँति द्रुत्तर था, नष्ट हो गया है। और हे अच्युत ! विषया लब्धा । यस्सा लाभात् सर्वग्रन्थीनां आपकी कृपाके आश्रित होकर मैंने आपको कृपासे, विप्रमोक्षः। त्वत्प्रसादात् तव प्रसादाद् मया आत्मविषयक ऐसी स्मृति भी प्राप्त कर ली है कि जिसके प्राप्त होनेसे समस्त त्रन्थियाँ--संशय विच्छिन्न त्वत्प्रसादम् आश्रितेन अच्युत । हो जाते हैं। अनेन मोहनाशप्रश्नप्रतिवचनेन सर्वशाखा- इत मोहनाशविषयक प्रश्नोत्तरसे, यह बात र्थज्ञानफलम् एतावद् एव इति निश्चितं दर्शितं निश्चितरूपसे दिखलायी गयी है, कि जो यह अज्ञानजनित मोहका नाश और आत्मविषयक स्मृति- भवति यद् उत अज्ञानसंमोहनाश आत्मस्मृति- का लाभ है, बस, इतना ही समस्त शाखोंके अर्थ- लाभः च इति । ज्ञानका फल है। तथा च श्रुतौ 'अनात्मवित् शोचामि' (छा० इसी तरह (छान्दोग्य) श्रुतिमें भी मैं आत्माको उ०७।१।३) इति उपन्यस्य आत्मज्ञाने न जाननेवाला शोक करता हूँ इस प्रकार प्रकरण उठाकर, आत्मज्ञान होनेपर समस्त ग्रन्थियोंका सर्वग्रन्थिविनमोक्ष उक्तः। विच्छेद बतलाया है।