पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/४४

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श्रीमद्भगवद्गीता न हि अत्र युद्धकर्तव्यता विधीयते । युद्धे यहाँ ( उपर्युक्त कथनसे) युद्धकी कर्तव्यताका प्रवृत्त एव हि असौ शोकमोहप्रतिबद्धः तूष्णीम् | विधान नहीं है, क्योंकि युद्ध में प्रवृत्त हुआ ही वह आस्ते, तस्य कर्तव्यप्रतिबन्धापनयनमात्र ( अर्जुन ) शोक-मोहसे प्रतिबद्ध होकर चुप हो | गया था, उसके कर्तव्यके प्रतिबन्धमात्रको भगवान् भगवता क्रियते । तस्मात् 'युध्यस्व' इति हटाते हैं। इसलिये 'युद्ध कर यह कहना अनुमोदन- अनुवादमात्रं न विधिः ॥१८॥ मात्र है, विधि ( आज्ञा ) नहीं है ।॥ १८ ॥ ते । कथम् शोकमोहादिसंसारकारणनिवृत्यर्थ गीता- गीताशास्त्र संसारके कारणरूप शोक-मोह आदि- शास्त्रं न प्रवर्तकम् इति, एतस्य अर्थस्य साक्षिभूते को निवृत्त करनेवाला है, प्रवर्तक नहीं है । इस अर्थकी साक्षिभूत दो ऋचाओंको भगवान् उद्धृत ऋचौ आनिनाय भगवान् । करते हैं। यत् तु मन्यसे युद्धे भीष्मादयो मया हन्यन्ते जो तू मानता है कि 'मेरेद्वारा युद्धमें भीष्मादि अहम् एव तेषां हन्ता इति एषा बुद्धिः मृषा एवं मारे जायेंगे, मैं ही उनका मारनेवाला हूँ'--यह तेरी बुद्धि ( भावना ) सर्वथा मिथ्या है। कैसे ?..-- य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ १६ ॥ य एनं प्रकृतं देहिनं वेत्ति जानाति हन्तारं जिसका वर्णन ऊपरसे आ रहा है, इस आत्माको हननक्रियायाः कर्तारम् यः च एनम् अन्यो मन्यते | जो मारनेवाला समझता है अर्थात् हननक्रियाका कर्ता मानता है और जो दूसरा (कोई) इस आत्माको हतं देहहननेन 'हतः अहम् इति' हननक्रियायाः देहके नाशसे मैं नष्ट हो गया'-ऐसे नष्ट हुआ मानता कर्मभूतम् । है—अर्थात् हननक्रियाका कर्म मानता है । तौ उभौ न विजानीतो न ज्ञातवन्तौ अविवेकेन वे दोनों ही अहंप्रत्ययके विषयभूत आत्माको आत्मानम् अहंप्रत्ययविषयम् । अविवेकके कारण नहीं जानते । 'हन्ता अहं हत अस्मि अहम्' इति देहहननेन अभिप्राय यह कि जो शरीरके मरनेसे आत्माको आत्मानं यो विजानीतः तो आत्मस्वरूयानभिज्ञौ | 'मैं मारनेवाला हूँ' 'मैं मारा जाता हूँ'-इस प्रकार इत्यर्थः। जानते हैं वे दोनों ही आत्मस्वरूपसे अनभिज्ञ हैं। यस्मात् न अयम् आत्मा हन्ति न हनन- क्योंकि यह आत्मा विकाररहित होनेके कारण क्रियायाः कर्ता भवति, न हन्यते न च कर्म न तो किसीको मारता है और न मारा जाता है अर्थात् न तो हननक्रियाका कर्ता होता है और भवति इत्यर्थः अविक्रियत्वात् ॥१९॥ न कर्म होता है ॥१९॥ कथम् अविक्रिय आत्मा इति द्वितीयो आत्मा निर्विकार कैसे है ? इसपर दूसरा मन्त्र (इस प्रकार है)-