पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३४०

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श्रीमद्भगवद्गीता ऋत्विग्यजमानव्यापारगुणदोपाणाम् ईक्षिता और यजमानोंद्वारा किये हुए कर्मसम्बन्धी गुण-दोषों को तटस्थ-भावसे देवता है, उसी प्रकार कार्य और तद्वत् कार्यकरणव्यापारेषु अव्यावृतः अन्यो करणों के व्यापार में खयं न लगा हुआ उनसे अन्य- विलक्षणः तेषां कार्यकरणानां सव्यापाराणां विक्षण आत्मा उन व्यापारयुक्त कार्य और करणों को सामीप्येन द्रष्टा उपद्रष्टा । समीपस्थ भावसे देखनेवाला है। अथवा देहचक्षुर्मनोबुद्ध्यात्मनो द्रष्टारः, तेषां अथवा देह, चक्षु, मन, बुद्धि और आत्मा ये सभी द्रष्टा है, उनमें बाय द्रष्टा शरीर है, और उससे बाह्यो द्रष्टा देहः, तत आरभ्य अन्तरतमः च लेकर उन सबकी अपेक्षा अन्तरतम--समीपस्थ द्रष्टा प्रत्यक्समीप आत्मा द्रष्टा यतः परो अन्तरो अन्तगत्मा है । जिसकी अपेक्षा और कोई आन्तरिक न अस्ति द्रष्टा स अतिशयसामीप्येन द्रष्टत्वाद् होने के कारण उपद्रष्टा होता है. ( अतः आत्मा द्रष्टा न हो, बह्न अतिशय सामीप्य भावले देखनेवाला उपद्रष्टा स्यात् । उपद्रष्टा है)। यज्ञोपद्रष्ट्रवद् वा सर्वविपयीकरणाद् अथवा ( यो समझो कि) यज्ञके उपद्रष्टाकी भाँति उपद्रष्टा। सबका अनुभव करनेवाला होनसे आत्मा उपद्रष्टा है। अनुमन्ता च अनुमोदनम् अनुमननं कुर्वत्सु तथा यह अनुमन्ता है- क्रिया करने लगे

अन्तःकरण और इन्द्रियादिको क्रियाओंमें सन्तोषरूप

तस्क्रियासु परितोषः तत्कर्ता अनुमन्ता च । अनुमोदनका नाम अनुमनन है,उसका करनेवाला है। अथवा अनुमन्ता कार्यकरण प्रवृत्तिषु स्वयम् अथवा यह इसलिये अनुमन्ता है कि कार्यकरण- अप्रवृत्तः अपि प्रवृत्त इव तदनुकूलो विभाव्यते की प्रवृत्तिमें स्वयं प्रवृत्त न होता हुआ भी उनके तेन अनुमन्ता। अनुकूल प्रवृत्त हुआ-सा दीखता है। अथवा प्रवृत्तान् स्वव्यापारेषु तत्साविभूतः अथवा अपने व्यापारमें लगे हुए अन्तःकरण और इन्द्रियादिको उनका साक्षी होकर भी कभी कदाचिद् अपि न निवारयति इति अनुमन्ता। निवारण नहीं करता, इसलिये अनुमन्ता भर्ता भरणं नाम देहेन्द्रियमनोबुद्धीनां तथा यह भर्ता है, चैतन्यस्वरूप आत्माके भोग संहतानां चैतन्यात्मपारार्थेन निमित्तभूतेन और अपवर्गकी सिद्धिके निमित्तसे संहत हुए चैतन्य- चैतन्याभासानां यत् स्वरूपधारणं तत् के आभासरूप शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि- का स्वरूप धारण करना ही भरण है और वह चैतन्यात्मकृतम् एव इति भर्ता आत्मा इति चैतन्थरूप आत्माका ही किया हुआ है, इसलिये उच्यते। आत्माको भर्ता कहते हैं। भोका अग्न्युष्णवद् नित्यचैतन्यस्वरूपेण आत्मा भोक्ता है। अग्निके उष्णत्वकी भाँति बुद्धः सुखदुःखमोहात्मकाः प्रत्ययाः सर्वविषय- नित्य-चैतन्य आत्मसत्तासे समस्त विषयोंमें पृथक्- विषयाः चैतन्यात्मग्रस्ता इव पृथक होनेवाली जो बुद्धिकी सुख-दुःख और मोहरूप जायमाना प्रतीतियाँ हैं, वे सब चैतन्य आत्माद्वारा ग्रस्त की विभक्ता विभाव्यन्ते इति भोक्ता आत्मा हुई-सी दीखती हैं, अतः आत्माको भोक्ता कहा उच्यते । जाता है।