पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/२१७

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शांकरभाष्य अध्याय ८ अधियज्ञः सर्वयज्ञाभिमानिनी देवता 'यज्ञ ही विष्णु है' इस श्रुतिके अनुसार सब विष्ण्याख्या 'यज्ञो वै विष्णुः' इति श्रुतेः । यज्ञोंका अधिष्ठाता जो विष्णुनामक देवता है वह स हि विष्णुः अहम् एव अत्र अस्मिन् देहे यो अधियज्ञ है । हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! इस देहमें जो यज्ञ है उसका अधिष्ठाता वह विष्णुरूप अधियज्ञ यज्ञः तस्य अहम् अधियज्ञः, यज्ञो हि देह मैं ही हूँ । यज्ञ शरीरसे ही सिद्ध होता है अतः निर्वय॑त्वेन देहसमवायी इति देहाधिकरणो यज्ञका शरीरसे नित्य सम्बन्ध है इसलिये वह भवति, देहभृतां वर ।। ४॥ शरीरमें रहनेवाला माना जाता है ॥ ४ ॥ अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । यः प्रथाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥ ५ ॥ अन्तकाले च मरणकाले माम् एव परमेश्वरं! और जो पुरुप अन्तकालमें-मरणकालमें मुझ विष्णु स्मरन् मुक्त्वा परित्यज्य कलेबरं शरीरं परमेश्वर-विष्णुका ही स्मरण करता हुआ शरीर यः प्रयाति गच्छति स मद्भाव वैष्णवं तत्त्वं याति, छोड़कर जाता है, वह मेरे भावको अर्थात् विष्णुके न अस्ति न विद्यते अत्र अस्मिन् अर्थे संशयो परम स्वरूपको प्राप्त होता है। इस विषयमें प्राप्त होता याति वा न वा इति ॥५॥ हैं या नहीं ऐसा कोई संशय नहीं है I] ५ ॥ न मद्विषय एव अयं नियमः किं तर्हि- केवल मेरे विषयमें ही यह नियम नहीं है, किन्तु-- यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ ६ ॥ यं यं वा अपि चं यं भावं देवताविशेष हे कुन्तीपुत्र! प्राणवियोगके समय (यह जीव) जिस- स्मरन् चिन्तयन् त्यजति परित्यजति अन्ते जिस भी भावका अर्थात् ( जिस किसी भी ) देवता- विशेषका चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है, उस प्राणवियोगकाले कलेवरम् तं तम् एव स्मृतं भावम् भावसे भावित हुआ वह पुरुष सदा उस स्मरण किये एव एति न अन्यं कौन्तेय सदा सर्वदा तद्भाव- हुए भावको ही प्राप्त होता है, अन्यको नहीं । उपास्य भावितः तस्मिन् भावः तझावः स भावितः । देवविषयक भावनाका नाम 'तद्भाव' है, वह जिसने सार्यमाणतया अभ्यस्तो येन स तद्भावभावितः भावित यानी बारंबार चिन्तन करनेके द्वारा अभ्यस्त किया हो, उसका नाम 'तनावभावित' है ऐसा होता हुआ (उसीको प्राप्त होता है) ॥६॥ सन् ॥६॥