Sam श्रीमद्भगवद्गीता अत एवम् उत्तमफलप्राप्तये- अतः ऐसे उत्तम फलकी प्राप्तिके लिये--- योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ १० ॥ योगी ध्यायी युञ्जीत समादध्यात् सततं ध्यान करनेवाला योगी अकेला-किसीको साथ न लेकर पहाड़की गुफा आदि एकान्त स्थानमें सर्वदा आत्मानम् अन्तःकरणं रहसि एकान्ते स्थित हुआ, निरन्तर अपने अन्तःकरणको ध्यान में गिरिगुहादौ स्थितः सन् एकाकी असहायः । स्थिर किया करे। रहसि स्थित एकाकी च इति विशेषणात् 'एकान्त स्थानमें स्थित हुआ' और 'अकेला' इन संन्यासं कृत्या इत्यर्थः। विशेषणोंसे यह भाव पाया जाता है कि संन्यास ग्रहण करके योगका साधन करे । यतचित्तात्मा चित्तम् अन्तःकरणम् आत्मा जिसका चित्त-अन्तःकरण और आत्मा--शरीर देहः च संयतौ यस्य स यतचित्तात्मा निराशीः : (दोनों) जीते हुए हैं ऐसा यतचित्तात्मा, निराशी- बीततृष्णः अपरिग्रहः च परिग्रहरहितः । तृष्णाहीन और संग्रहरहित होकर अर्थात् संन्यासी संन्यासित्वे अपि त्यक्तसर्वपरिग्रहः सन् युञ्जीत होने पर भी सब संग्रहका त्याग करके योगका इत्यर्थः ॥१०॥ अभ्यास करे ॥१०॥ अथ इदानीं योगंयुत्त आसनाहारविहारा- योगाभ्यास करनेवालेके लिये योगके साधन- | रूप आसन, आहार और बिहार आदिका दीनां योगसाधनत्वेन नियमो वक्तव्यः प्राप्त- नियम बतलाना उचित है एवं योगको प्राप्त हुए योगलक्षणं तत्फलादि च इति अत आरभ्यते । पुरुषका लक्षण और उसका फल आदि भी कहना चाहिये । इसलिये अब ( यह प्रकरण) आरम्भ तत्र आसनम् एव तावत् प्रथमम् उच्यते-- किया जाता है। उसमें पहले आसनहीका वर्णन करते हैं- शुचौ देशे प्रतिष् स्थिरमासनमात्मनः। नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ ११ ॥ शुचौ शुद्धे विविक्ते स्वभावतः संस्कारतो शुद्ध स्थानमें अर्थात् जो स्वभावसे अथवा झाड़ने- वा देशे स्थाने, प्रतिष्ठाप्य स्थिरम् अचलम् आत्मन | बुहारने आदि संस्कारोंसे साफ किया हुआ पवित्र और एकान्त स्थान हो, उसमें अपने आसनको आसनं न अत्युच्छ्रितं न अतीव उच्छ्रितं न अपि जो न अति ऊँचा हो और न अति नीचा हो और अतिनीचंतत् च चैलाजिनकुशोत्तरम् चैलम् अजिनं जिसपर क्रमसे वस्त्र, मृगचर्म और कुशा विछाये गये हों, अविचलभावसे स्थित करके । यहाँ पाठ- कुशाः च उत्तरे यस्मिन् आसने तद् आसनं क्रमसे उन वस्त्रादिका क्रम उलटा समझना चाहिये चैलाजिनकुशोत्तरं पाठक्रमाद् विपरीतः अत्र अर्थात् पहले कुशा उसपर मृगचर्म और फिर क्रमः चैलादीनाम् ॥११॥ उसपर वस्त्र बिछावे ॥११॥
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