पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/१२४

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श्रीमद्भगवद्गीता खशब्देन अपि शक्यं वक्तुं नित्यकर्मणां (भगवान्को यदि यही अभीष्ट होता तो) वे उसी प्रकारके शब्दोंसे भी स्पष्ट कह सकते थे कि 'नित्य- फलं न अस्ति अकरणात् च तेषां नरकपातः 'कोका कोई फल नहीं है और उनके न करनेसे स्याद् इति । तत्र व्याजेन परव्यामोहरूपेण नरक-प्राप्ति होती है।' फिर इस प्रकार 'कर्ममें जो अकर्म देखता है' इत्यादि दूसरोंको मोहित करनेवाले कर्मणि अकर्म यः पश्येद् इत्यादिना किम् । मायायुक्त वचन कहनेसे क्या प्रयोजन था । तत्र एवं व्याचक्षाणेन भगवता उक्तं वाक्य इस प्रकार उपर्युक्त अर्थ करनेवालों का तो स्पष्ट ही यह मानना हुआ कि 'भगवानद्वारा कहे हुए लोकव्यामोहार्थम् इति व्यक्तं कल्पितं स्यात् । वचन संसारको मोहित करनेके लिये हैं ।' न च एतत् छद्मरूपेण वाक्येन रक्षणीयं इसके सिवा न तो यह कहना ही उचित है कि यह नित्यकर्म-अनुष्टानरूप विषय मायायुक्त वचनोंसे वस्तु, न अपि शब्दान्तरेण पुनः पुनः उच्यमानं गुप्त रखनेयोग्य है और न यही कहना ठीक है कि ( यह विषय बड़ा गहन है इसलिये ) बारंवार सुबोधं स्याद् इत्येवं वक्तुं युक्तम् । दूसरे-दूसरे शब्दोंद्वारा कह से सुबोध होगा। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' इति अत्र हि स्फुटतर क्योंकि 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' इस श्लोकमें स्पष्ट कहे हुए अर्थको फिर कहनेकी आवश्यकता उक्तः अर्थो न पुनः वक्तव्यो भवति । नहीं होती। सर्वत्र च प्रशस्तं बोद्धव्यं च कर्तव्यम् एव तथा सभी जगह जो बात करने योग्य होती है, वहीं प्रशंसनीय और जाननेयोग्य बतलायी न निष्प्रयोजनं बोद्धव्यम् इति उच्यते । जाती है । निरर्थक बातको 'जाननेयोग्य है' ऐसा नहीं कहा जाता। न चमिथ्याज्ञानं बोद्धव्यं भवति तत्प्रत्युप- मिथ्याज्ञान या उसके द्वारा स्थापित की हुई स्थापितं वा वस्त्वाभासम् । आभासमात्र वस्तु जाननेयोग्य नहीं हो सकती। न अपि नित्यानाम् अकरणाद् अभावात् इसके सिवा नित्यकर्मोंके न करनेरूप अभावसे प्रत्यवायरूप भावकी उत्पत्ति भी नहीं हो सकती। प्रत्यवायभावोत्पत्तिः 'नासतो विद्यते भावः' क्योंकि नासतो विद्यते भावः' इत्यादि भगवान्के इति वचनात् । 'कथमसतः सज्जायत' ( छा० उ० वाक्य हैं तथा 'असत्से सत् कैसे उत्पन्न हो सकता है ?' इत्यादि श्रुतिवाक्य भी पहले दिखलाये ६।२।२ ) इति च दर्शितम् । जा चुके हैं। असतः सजन्मप्रतिषेधाद् असतः सदुत्पत्ति इस प्रकार असत्से सत्की उत्पत्तिका निषेध कर ब्रुवता असद् एव सद् भवेत् सत् च असद् दिया जानेपर भी जो असत्से सत्की उत्पत्ति बतलाते हैं, उनका तो यह कहना हुआ कि असत् भवेत् इति उक्तं स्यात् । तत् च अयुक्तं तो सत् होता है और सत् असत् होता है, परन्तु सर्वप्रमाणविरोधात् । यह सब प्रमाणोंसे विरुद्ध होनेके कारण अयुक्त है।