पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९६

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। ७७ वार्तिक तिलक । सागर से निकाले हुए जिन रत्नों में अपार सार अर्थात् अति प्रकाशयुत अमूल्यता थी, वे रत्न तीनों लोकों के देव भूप नागों के मस्तकों के महामुख्य भूषण थे, तिनको जीत के रावण ने बड़े चाव से अपने कोश में रक्खा था। उन्हीं स्त्रों को बड़े हित चाह से श्रीविभीषणजी ने माला बनाके सब सुखसाजयुक्त महाराज श्रीरघुनाथजी को भक्तिपूर्वक भेट दी ॥ उस महामनोहर माला को देखके सभा भर के लोगों को उसकी अथाह (अवगाह) चाह उत्पन्न हुई। श्रीजानकीजीवनजी ने देखा कि इस माला ने तो हमारे सब निष्काम भक्तों के मन को चाहयुक्त कर दिया, इससे सवको चाहरहित करने के निमित्त श्रीहनुमानजी के गले में वह माला पहिरा दी । श्रीमारतीजी तो प्रभु के रूप अनूप के अवलोकन से छके अपनपौ विसारे हुए थे ही माला कण्ठ में पड़ते ही मषियों के सौन्दर्य को देखकर और उसमें कहीं श्रीराम नाम न देखकर आपकी मति अकुला उठी और विचार किया “कदाचित् इसके भीतर श्रीनाम हो" इस हेतु से उस माला की एक मणि को फोर के आपने देखा तो भीतर भी श्रीनाम न पाया। तब यह विचार किया कि “यह तो श्रीरहित हो चुकी है” उस मणि को डाल दिया, इसी प्रकार से एक एक मणि को फोर फोर देख देख फेंकने लगे। यह कौतुक देखके सब समाचकित हुई और श्रीविभीषणजी बोल ही उठे "कपिवरजी आप इन अमूल्य मणियों को फोर फोर फेंकते क्यों हैं ? कपि जाति स्वभाव से ही, वा इसमें कोई हेतु भी है ?" तब श्रीसीताराम सम्पत्ति के धनिक श्रीमंजनीनन्दनजी ने उत्तर दिया कि “श्रीरामनाम से हीन ये मणि मेरे काम के नहीं" यह सुन श्रीविभीषणजी ने पुनः पूछा कि भापके शरीर में भी तो श्रीरामनाम दीखता नहीं, फिर उसे क्यों रक्खे हुए हैं ? इतना सुनते ही आपने नखों से अपने दिव्य विग्रह की त्वचा खोल के दिखाया तो तेजोमय सूक्ष्म शब्दयुत सर्वाङ्ग में श्रीरामनाम सबको देख पड़े ॥ और सबकी मति आश्चर्य में मग्न हो गई। देखिए, इस कौतुक से श्रीकपिकुलकेतुजी ने सबों को परम वैराग्ययुत