पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९५४

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A ngeli भक्तिसुधास्वाद तिलक । बोधिनी" टीका मति को शुद्ध करनेवाली है। इसको पढ़कर अर्थ कहने में अतिही सुहावनी लगती है। जो कदाचित् किसी को प्रेम लक्षणा भक्ति की चाह हो, और इस टीका को मानसिक नेत्रों से देख के अवगाहै अर्थात् इसमें प्रवेश करे, तो अवश्य उसके हृदय की ताप मिट जाय, और प्रेमामक्ति को प्राप्त हो । इसको सप्रेम सुनने में टीका और मूल का नाम भूल जाता है, यह भेद नहीं बुझ पड़ता कि हम मूल सुन रहे हैं कि टीका । और, भगवत् रसिक अनन्यों के मुख से तो इसकी कथा विश्वमोहिनी हो जाती है ॥ ६३२॥ श्रीलालप्यारी प्रियादासजी कहते हैं कि श्रीनामा स्वामीजी का अभिलाष मैंने पूर्ण किया। उस अभिलाष की साक्षी मैंने प्रथम ही प्रारंभ में भले प्रकार गान करके सुना दी है। जिसको भगवद्भक्ति में विश्वास हो, उसी को यह ग्रंथ प्रकाश करना (सुनाना) चाहिये, अभक्त अविश्वासी को नहीं, भाक्तियुक्त को सुनाने से उसका हृदय प्रेम- रंग से भीग जायगा तव प्रेम लाड़ खड़ा के सन्तों की सेवा करेगा। , प्रसिद्ध विक्रमीय संवत् १७६६ (सत्रह सौ उन्हत्तर) के फाल्गुन कृष्ण सप्तमी को टीका ( भक्विरसबोधिनी) पूर्ण हुई। • टीकाकार (श्री ५ प्रियादासजी) प्रार्थना करते हैं कि “हे श्रीनारायणदासजी स्वामी (श्री १०८ नाभा स्वामी) । अपनी सुखरास अक्तमाल लेके मुझ प्रियादास को अपना दास जानकर मेरे हृदय में बस के छा रहिये”॥६३३॥

अन्त में, श्रीमियादासजी कहते हैं कि हे प्रभो ! मेरे जन्म जन्मान्त-

रीय दुष्कर्म पातकों से जो आपकी इच्छा हो, तो चाहे मुझे अग्नि में जला दीजिये, जल में डुबा दीजिये, सूली पर चढ़वा दीजिये, हलाहल विष घोर के पिवा दीजिये, बहुत से विच्छुओं से कटवा दीजिये, इत्यादि इत्यादि, परन्तु करुणानिधे। आपकी भक्ति से जो विमुख हो उसका मुख मुझे कभी मत दिखलाइये। यही मेरी प्रार्थना है. प्राणनाथ !! ॥ ६३४॥ इति श्री "भक्तिरसबोधिनी" टीका समाप्ता।