पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९३३

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- --- papg mmar++++ + + + + + श्रीभक्तमाल सटीक । दो० "गिरिधर स्वामी पर कृपा, बहुत भई दशकुञ्ज । रसिक रसिक नीको सुजसु, गायौ तिहि रसपुञ्ज ॥" (श्रीध्रुवदास) ___ ग्वालपदवी आपने श्रीनन्दनन्दनजी के सखा होने से पाई थी। गिरिधरजी कई हुये हैं। एक बरसानवाले- दो० "बरसाने गिरिधर सुहृद्, जाकें ऐसा हेत।। भोजन हूँ भक्तन विना, धखो रहै, नहिं खेत ॥” और श्रीवल्लभाचार्यजी के पोते, विट्ठलनाथ के बेटे श्रीगिरिधरजी मूल ८० में तथा मूल १३१ में वर्णित हुए ॥ (८१७) टीका । कवित्त । ( २६) गिरिधर ग्वाल, साधुसेवा ही को ख्याल जाके, देखि यौं निहाल होत प्रीति साँची पाई है । संत तन छूटे हूँते लेत चरणामृत जो, और अब रीति कहो कापै जात गाई है । भये बिज पंच इकठौरे सो प्रपंच मान्यौं, पान्यो सभामाँझ कहैं “छोड़ी न सुहाई है ।जाकै हो अभाव मत लेवो, मैं प्रभाव जानौ मृतक यौँ बुद्धि ताको बारों"सुनि भाई है।। ६२४ ॥(६) वात्तिक तिलक । श्रीगिरिधरग्वालजी परम भक्त हुये । आपके चित्त में सदा साधु- सेवा ही का चिन्तवन बना रहा करता था । सन्तों का दर्शन करते ही प्रेमानन्द से निहाल हो जाते थे। क्योंकि प्रभु की कृपा से सच्ची प्रीति प्राप्त थी, यहाँ तक कि साधु का प्राण छूट जाने पर भी चरणा- मृत ले लेते थे, तब सजीव सन्तों में आपकी जैसी प्रीति रीति थी वह कौन कह सकता है ? इस बात को देख सब ब्राह्मण प्रपंच पंचायत और सभा कर श्रीगिरिधरजी को बुलाकर कहने लगे कि "मृतक वैष्णवौं का चरणामृत लेना छोड़ दो यह भला नहीं है। उनके वचन सुन आपको नहीं अच्छे लगे, उत्तर दिया कि "जिसके अभाव हो वह मत ले, मैं तो भगवद्भक्तों का प्रभाव जानता हूँ १ "ख्याल"खयाल-J =सुरति, सुवि, स्मरण ||