पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९१६

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । वात्तिक तिलका एक समय स्वामी श्री ६ कृष्णदासजी गलता की गुफा में बैठे थे देखें तो एक व्याघ्र श्राकर खड़ा है। श्रापने विचार किया कि “यह कभी यहाँ नहीं पाया इससे हमारा अतिथि है, इसको भोजन देना चाहिये।” अपनी जंघाओं का मांस काटकर उसके आगे डाल दिया और कहा "कि इसका आहार करो।” देखिये आपकी अपार महिमा, हिंसक अतिथि को भी भोजन देना बताया अर्थात् अपनी करनी से उपदेश दिया। मांस खाकर व्याघ्र चला गया । श्री ६ कृष्णदासजी की यह धर्षपालनरूप अतिशय सचाई देख परम धर्मधुरंधर श्रीरामजी से नहीं रहा गया, कोटि कामअभिरूप से आकर दर्शन दिये और मस्तक पर कमलकर घर सब दुःख दूर कर दिये । जंघा भी ज्यों को त्यों होगई। श्री १०८ पयहारीजी नयनानन्द पाकर कृतार्थे हुये ।। देखिये, लोग अतिथि को अन्न जल देने में मँखते हैं, आपके समान कर्म कौन कर सकता है इस बात को मन में विचार करने से ही जीव घबड़ा जाते हैं सो कर कसे सके ? ॥ (२१७) श्रीगदाधरदासजी। (७९९ ) छप्पय । (४४) भलीभांति निवही भगति, सदा “गदाधरदास" की। लालबिहारी जपत रहत निशिवासर फूल्यो । सेवा सहज सनेह सदा आनँद रस झूल्यौ ॥ भक्तनि सों अति प्रीति रीति सबही मन भाई। आसय अधिक उदार रसन हरि- कीरति गाई॥ हरि विश्वास हिय आनिकै, सुपनेहुँ आन न पास की। भली भाँति निवही भगति, सदा "गदाधर- दास" की॥१८६॥ (२८)