पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/९०१

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८८२ श्रीभक्तमाल सटीक । प्रगट कुल दीप प्रकासी ! महत सभा में मान जगत जानै रैदासी पद पढ़त भई परलोक गति, गुरु गोबिंद जुग फल दिये। “बीठलदास” हरि भक्ति के, दुहूं हाथ लाडू लिये॥१७७॥ (३७) वात्तिक तिलक। श्रीवीठलदासजी दोनों हाथों में श्रीहरिभक्ति के लडड्ड लिये अर्थात् जीवनावधि इस लोक में हरिभक्तिमय सुयश, और शरीर छूटने पर भगवद्धाम का लाभ उठाया। श्रीहरिभक्तों के चरणरज सेवन का व्रत धारणकर आदि से अंत तक निर्वाह किया; जगत् से ऐंडयुक्त होकर संसार के धनी लोगों को तुच्छ समझा । प्रभुता पति की पद्धति अर्थात् श्रीश्री (लक्ष्मी) संप्रदाय में प्रगट कुलदीप होकर प्रकाश किया। सर्वजगत् जानता था कि श्रापरदासजी के वंश में उत्पन्न हुये तथापि महननों की सभा में आपका बड़ा मान होता था। श्रीरामसुयशयुत पद को पढ़ते पढ़ते परलोकगति हुई अर्थात् तन तजके श्रीरामधाम को प्राप्त हुये । इस प्रकार श्रीगुरुगोविंद ने युगल फल दिये ॥ (७८१) छप्पय । (६२) भगवंत रचे भारी भगत, भक्तनि के सनमान को॥ "काहब" * श्रीरँग सुमति, सदानंद सर्वसु त्यागी । स्यामदास "लघुलंब" अननि, लाखें अनुरागीमारू मुदित कल्यान, “परस" बंसी नारायन । “चेता" ग्वाल

  • "क्वाहव" कोई महात्मा बताते है कि (१) क्वाह (२) श्रीरङ्ग (३) सदानन्द

(४) श्यामदास (५) मारू (६) मुदित (७) कल्यान (८) परस (९) वणी (१०) नारायन (११) घेता (१२) ग्वाल गोपाल (१३) शङ्कर ये सब (तेरहो) नाम भक्तो ही के हैं। और किसी ने लघुलंब के स्थान में पाठान्तर "लघुवंश" बताया है और नीच कुल मे उत्पन्न श्यामदास यह अर्थ उसके किये है।