पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८७२

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a re- Ho + t + Patna + - + + + भक्तिसुधास्वाद तिलक । बात्तिक तिलक । उसी खाकर (करंक) ही में बैठे तीन दिन बीत गये, मन में कुछ भी शंका नहीं । यह बाँकी प्रीति की रीति किस प्रकार गान हो सकती है? चौथे दिन कोई श्रीगंगा को जाता था उसी के साथ आकर गंगा में स्नानकर, अपने सब भूषण दान दे, वृन्दावन में चली आई। हरिस्मरण में मग्न रहती थीं। पीछे, आपके पिता परशुरामजी ढूँढ़ते २ मथुराजी में आये, और मथुरियों से पता पाकर उनको साथ में ले सघन वन ब्रह्मकुंड के समीप एक वट के वृक्ष पर चढ़, श्रीकरमैतीजी को देख उन्होंने आँसुओं से भूमि को भिगा दिया। (७४८) टीका । कवित्त । (९५) उतरि के प्राय रोय पाय लपटाय गयो, “कटी मेरी नाक जग मुख न दिखाइये । चलौ गृह वास करो, लोक उपहास मिटै, सासु घर जावो मत सेवा चित लाइये ॥ कोऊ सिंह व्याघ्र अजू वपुकों विनाश करे, त्रास मेरे होत, फिरि मृतक जिवाइयै ।" बोली "कही साँच विन भक्ति तन ऐसो जानो जौप जियो चाही, करौ प्रीति जस गाइये" || ५८६ ।। (४१) वात्तिक तिलक । परशुराम वृक्ष से उतरके रोते हुए श्रीकरमैतीजी के पास पहुँच चरणों में लपटकर कहने लगे कि "बेटी ! तुम्हारे चले आने से संसार में मेरी नाक कटगाई, मैं लज्जा से किसी को मुख नहीं दिखाता । तुम चलो, अपने घर में निवास करो, लोक की उपहास मिदै, ससुराल मत जाओ, घर ही में चित्त लगाके भजन पूजा करो, यहाँ वन में कोई सिंह व्याघ्र खा जाय, तो मुझे बड़ा दुःख होगा,तुम्हारी माता और मैं मृतकपाय हूँ, सो फिर चलकर दोनों को जिलाओ ।।" __ पापने उत्तर दिया कि “सत्य कहते हो, भक्ति के विना शरीर को मृतक ही जानो, जो निया चाहो, तो श्रीप्रभु के पद में प्रीति कर श्रीनामयश को गान करो।"