पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८५९

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८४० श्रीभक्तमाल सटीक । (७३०) टीका । कवित्त । (११३) बीतत बरस मास आ "मधुपुरी," नेम प्रेमसों महोलो रास हेम ही लुटाइयै । संतनि जिवाँय, नाना पट पहिराय, पाछे दिजन बुलाय, कछु पूज, पै, न भाइयै ॥ भायौ कोऊ काल, धन माल जा बिहाल भए, चाहै पन पाखौ श्राए “अलप कराइये"। रहे विष दूषि सुनि भयो सुख भूख बढ़ी, प्रायौ यों समाज करौ स्वारी | मन आइयै ॥ ५७६ ॥ (५३) वात्तिक तिलक । सेठ श्रीभगवानदासजी का नियम था कि बारह महीना बीते गृह से बहुतसा द्रव्य ले, मथुरानी में आकर प्रेम से महोत्सव, रासलीला करते सुवर्थ लुटाते थे, फिर संतों को भोजन कराके अनेक प्रकार के वन पहिराते थे। पीछे, बाह्मणों को बुलाकर कुछ पूजन करते॥ परन्तु ब्राह्मण प्रसन्न नहीं होते थे। कोई ऐसा काल पापड़ा कि धन सम्पत्ति घटने से और ही दशा हो गई, तथापि अपना नियम नहीं छोड़ा थोड़ा द्रव्य ले, आकर विनय किया कि “थोडासा नियम करा दीजिये।" ब्राह्मण लोग प्रथम से दुखित तो थे ही, सुनके मन में सुखी हो उन्होंने विचार किया कि “भला हुआ, आयो, अब इसका उत्सव समाज सव बिगाड़ देंगे।" (७३१) टीका । कवित्त । (११२) अति सनमान कियो, ल्याए जोई सौपि दियौ, लियो गाँठ बाँधि, तब बिनती सुनाइये । “संतनि जिंवावौ, भावै रास लै करावो, भावे जेवो सुख पायौ, कीजै बात मनभाइयै ॥” सीधौ ल्याय कोठे धरतो, रोक हो, सो थैली भखो, दिजन बुलाय देत कि हूँ निघटाइये। जितनो निकासै ताते सौगुनी बढ़त और, एक एक और बीस गुना दे पठाइयै ।। ५७७॥ (५२) वात्तिक तिलक। आप जहाँ टिके थे उन पंडाओं को बड़े सम्मान से, जो कुछ धन लाये सो सौंप दिया, उन्होंने जब गाँठि में बाँध लिया, तब आपने बिहाल"-1-2-कुदशा को प्राप्त । 1 "स्वारी"=al-अनादर, मानहानि ।