पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८३६

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८१७ MEAmandarenger- + andpu r भक्तिसुधास्वाद तिलक। सुतसंत अननिदसधाकौआगर ॥ पुरुषोत्तम परसादतें, उभै अंग पहियौ वरम । पारीष प्रसिद्धकुल काथड़या, जगन्नाथ सीवाँ धरम ॥१४३॥ (७१) वार्तिक तिलक। पारीष ब्राह्मण, काँथड़या कुल में उत्पन्न श्रीरामदासजी के पुत्र भक्त श्रीजगन्नाथजी भागवतधर्म की सीमा हुये । अनन्त श्रीरामानुज स्वामीजी की रीति से भगवत् प्रीतिपन (नियम) आपने अपने हृदय में धारण किया। पंचसंस्कार तथा शालसंस्कार और सब जगत् में सम व्याप्त भगवत् तत्त्व को, बुद्धि से, दूध के समान सार विचार के, हंसवत्, ग्रहण कर आपने अप्सत् वस्तु को जल के सम त्याग किया ॥ मुनि जनों की सी सदाचारवृत्ति, धारण कर, श्रीलक्ष्मी संप्रदाय में, परम प्रकाशमान हुये । और साधु सुभाव, अनन्य शरणागत, दशधा (प्रेमा)-भक्ति में परम प्रवीण हुए॥ अपने गुरु श्रीपुरुषोत्तमजी की कृपा से बाह्यान्तर दोनों अंगों में वर्म (बखतर) धारण किया अर्थात् श्राप राजा के पुरोहित शुरवीर विख्यात थे इससे प्रगट शरीर में कवच पहिनते थे दूसरा सूक्ष्म अन्तर अंग में क्षमा सहिष्णुता भक्ति का कवच पहिना जिसमें अन्तर शत्रुओं के शस्त्र प्रापको न लगै । और दोनों भुजाओं पर भगवदायुध छाप तथा सूक्ष्म अन्तर अंग में श्रीचरण चिह्न ध्यान भी कलि के शस्त्रों के लिये कवच थे सो सब धारण किए ॥ दो० "नैन सजल तिहिं रंग में, चित पायो विश्राम । विवस बेगि है जाति सुनि, लाल लाडिले नाम ॥" (१८०)श्रीमथुरादासजी। ((७०२) छप्पय । (१४१) कीरतन करत कर सुपनेहूँ, मथुरादास न मंडयौ। सदाचार, संतोष, मुहृद, सुठि, सील, सुभासे । हस्तक