पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८१८

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७९९ - --- - - - भक्तिसुधास्वाद तिलक । (१७६) श्रीपृथ्वीराजजी। (६७७) छप्पय । (१६६) नरदेव उभै भाषा निपुन, "एथीराज" कबिराज हुव॥ सवैया, गीत, श्लोक, बेलि, दोहा, गुन नवरस । पिंगल काब्य प्रमान विविध विधि गाया हरि जस॥ पर दुख विदुख, श्लाघ्य वचन, रचना जु बिचारै। अर्थ वित्त नि- माल सबै सारंग उर धारै रुक्मिनी लता बरनन अनूप, बागीश बदन कल्यान सुव । नरदेव उभै भाषा निपुन, "पृथीराज” कबिराज हुवं ।। १४० ॥ (७४) बात्तिक तिलक। बीकानेर के राजा श्रीप्रथीराजजी, देववाणी (संस्कृत) तथा प्राकृत नाषा (हिन्दी काव्य), दोनों ही में बड़े प्रवीण कविराज हुये । सवैया, गीत, पद, श्लोक, वेली, दोहा, आदि छन्दों से नवरसों और गुणगणों के युक्त, पिंगल काव्य के प्रमाण सहित, विविध प्रकार से श्रीहरि-सुयश आपने गान किया। दूसरे का दुख जाननेवाले और यथाशक्ति निवारण करनेवाले थे, प्रशंसनीय वचन रचना विचार कर और अर्थ वित्त निर्मोल सव का सारांश, सारंग (भँवर) की नाई, हृदय में ग्रहण करते थे। "रुक्मिणीलता" नामक ग्रंथ प्रति अनूप ऐसा वर्णन किया कि मानों मुख में सरस्वती बैठी थीं, ऐसे "श्रीकल्यानसिंहजी" के पुत्र पृथी- राज हुये ॥ (६७८) टीका 1 कवित्त । (१६५) मास्वार देस बीकानेर को नरेश बड़ो, “पृथीराज" नाम भक्त- राज कविराज है । सेवा अनुराग, और विष वैराग ऐसौ, रानी पहि- चानी नाहिं मानों देखी आज है ।। गयौ ही विदेस, तहाँ मानसी प्रवेस कियो, हियो नहीं छुवै ! कैसे सरै मन काज है । बीते