पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/८१०

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444dmadrud d in hotom - mmInNERH भक्तिसुधास्वाद तिलक। होय मेरे" रोयकै पुकारि कही, चली जलधार नैन प्रेम आप धीजे हैं ॥ ५२८ ॥ (१०१) वात्तिक तिलक। एक समय की वार्ता है कि किसी देश के एक महंत कथा में आये, सब ने आदर से आगे बैठाया उनने देखा कि सब संतों के नेत्रों से प्रेमाम्बुकी धारा चल रही है, "मेरे आँसू क्यों नहीं चलते ?" इस सोच के प्रवाह में पड़ गये। दूसरे दिन मिर्च पीसके लेते आये, खीझके युक्ति से नेत्रों में लगाली, अश्रुपात होने लगे। एक संत ने जानके भट्टजी से कह दिया। - जब सब श्रोता उठ गये तब भट्टजी अति प्रसन्न हो उनको छाती से लगा रोकर कहने लगे कि ऐसी रोने की मेरे भी चाह हो, तो भली है। आपके नेत्रों से जल की धारा चलने लगी। महंत के कृत्रिम प्रेम पर अति प्रसन्न हुए । आपके हृदय में लगाने से महंत के नित्य स्वतः अश्रुपात होने लगे॥ . (६६७) टीका । कवित्त । (१७६) आयो एक चोर, घर संपति वटोरि, गाँठि बाँधी, लै मरोरि किहूँ, उठे नाहिं भारी है । आयकै उठाय दई देखी इन रीति नई, पूछयौ नाम, प्रीति भई, भूलो मैं विचारी है ।। बोले आपले पधारो, होत ही सवारी धावै और दसगुनी मेरे तेरी यह ज्यारी है। प्राननिकौं आगे धरौ आनि के उपाय करों रहे समझाय भयो शिष्य चोरी टारी है ।। ५.२६ ॥ (१००) वात्तिक तिलक । किसी रात को एक चोर आकर घर की सब सम्पत्ति लेकर उसने गठरी बाँधी, परन्तु गठरी भारी हो गई किसी प्रकार उठती न थी, भट्टजी ने आकर चुपचाप उठा दी। चोर ने आपकी नवीन रीति ' देख, पूछा कि "आपका नाम क्या है ?" आपने नाम बताया सुनते ही चोर के हृदय में प्रीति प्रगट हुई, और विचार करने लगा कि "ऐसे महात्मा के यहाँ चोरी करनी मेरी बड़ी भूल