पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७९६

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७७७ Page ani+ + ++4+ P भक्तिसुधास्वाद तिलक। अति ॥ उदधिसद अक्षोभ सहज सुन्दर मित भाषी। गुरु वत्तन गिरिराज भलप्पन सब जग साषी॥ बिट्टलेश की भक्ति भयौ बेला दृढ़ ताकें। भगवत तेज प्रताप, नमित नरवर पद जाकैं॥ निर्विलीक आसय उदार, भजन पुंज गिरिधरन रति। बल्लभजू के वंश में, गुननिधि "गोकुलनाथ" अति ॥ १३२॥(८२) वात्तिक तिलक। श्रीवल्लभजी के वंश में (श्राप के पोते) श्री "गोकुलनाथजी" प्रति उत्तम गुणों के सिंधु हुए । समुद्र के समान क्षोभरहित, गंभीर, सहज सुन्दर, मितभाषी हुए । और आपका शरीर पुष्ट गौरवयुक्त गिरिराज सम था, इस बात के साक्षी जगत् भर के लोग थे कि आप बड़े मलप्पन साधुतायुक्त हुए । श्रीविठ्ठलेशजी की भक्तिसागर के श्राप दृढ़ वेला (मर्यादा) के समान हुए । श्रीभगवान के तेज प्रतापयुक्त होने से आपके चरणों को श्रेष्ठ नर वन्दते थे । सत्ययुक्त, उदार, अन्तःकरण भजनपुंज, गोवर्धननाथजी की प्रीति में परायण (६५१) टीका । कवित्त । (१९२) आयो कोऊ शिष्य होन ल्यायो भेट लाखन की, भाखन की चातुरी पै मेरी मति रीझियै । कहूँ है सनेह तेरो ? जाके मिलें विना देह व्याकुलता होय जोपे, तो पै दीक्षा दीजियै ॥ बोल्यो “अजु मेरो काल वस्तु सों न हेतु नैकु,” "नेति नेति कही हम, गुरु हँदि लीजिये । प्रेम ही की बात इहाँ करही पलटि जात, गयो दुख गात, कहो कैसे रंग भीजिये ॥ ५१६।। (११०) (शेर) आँखों में मेरी जगह है तेरी। चितवन तेरी कामना है मेरी ॥