पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७५४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सा ++ + + + भक्तिसुधास्वाद तिलक। ७३५ भले प्रकार धारण किया। नवधा” और “दशधा" (प्रेमा ) भक्तियों में प्रीति कर और सब कर्म धर्म भुला दिये । अध्युत कुल वैष्णवों में प्रेम करना ही परम पुरुषार्थ जाना, और सार प्रसार का विवेक " यथार्थ हुआ। श्रीयुगलसकरि की दास्यता, तथा अनन्यता, और तसेवा में उदारता, ये तीनों वार्ताएँ, भक्तिवतीजी को अति प्रिय गती थीं। उसका सुयश संत लोग और स्वयं राजा (उनके पति ही) अपने मुल से कहा करते थे। (६१०) टीका । बालिक ! (२३३) आये मधुपुरी राजाराम अभिराम दोऊ, दाम पे न राख्यो, साधु दिन भुगताये हैं । ऐसे ये उदार राहखरच सँभार नाहि, चलिनो विचार भयो चूरा दीठ पाये हैं ॥ मुद्रा सत पाँच मोल खोलि लिया आगे धेरै, दीजै बेचि गए नाभा कर पहिराये हैं। पति को जुलाइ कही नीके देखि रीझे भीजे कादिके करजापुर आये दे पठाये हैं॥ ४६० ॥ (१३६) वात्तिक तिलक । एक समय राजा रामरपन अपनी धर्मपत्नी के सहित श्रीमथुराजी में आके कुछ दिन रहे । पास में जो कुछ द्रव्य था, सो सब साधु ब्राह्मणों को दे दिया, ऐसे उदार थे कि मार्ग के लिये कुछ भी न रखा ।। __ अपने पुर में चलने का विचार हुआ, तो आपकी धर्मपत्नी के हाथों में कड़े दृष्टि पड़े, सो उन्होंने उतारके दे दिया। कहा कि "इन- को बेच दीजिये । पाँचसौ रुपये के मोल के थे। आप लेकर आये, श्रीनामास्वामीजी के करकमल में पहना दिये । वह भक्तिवती देख अति प्रसन्न हो पति को बुलाके कहने लगी "आपने बहुत ही अच्छा किया, मैं देखकर अति प्रसन्न हुई । यह सुन, आप भी प्रेम से भीज गये, फिर ऋण द्रव्य लेकर अपने पुर में आये, और वह द्रव्य अपने वहाँ से श्रीमथुराजी भेज दिया। "राह खरच"-tly=पन्थ मे व्यय के अर्थ घन, राहखर्च ! | "कर -ऋण, कम