पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७५३

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७३४ HIRAMM-नन् जन- श्रीभक्तमाल सटीक । शरद पूर्णमासी के समाज में रासलीला हुई, उसमें विविध प्रकार विलास नाच गान का भारी रंग बढ़ा, फिर दोऊ प्रिया प्रीतम प्रेमरस से भीगे विराजमान हुए तव राजा रामस्यन ने अपने समीपियों से पूछा कि "प्रभु को मेंट क्या करना चाहिये?" सुनके एक अनुरागी ब्राह्मण बोले कि “जो आपको प्यारी वस्तु हो सो भेंट कीजिये।" तब, राजा अपना नियत्व विचारने लगे, किसी वस्तु में थोड़ी भी प्रियता न देखी, रूप के घटा के समान आपकी एक कन्या थी उसमें अपना प्रियत्व जान, सेवा के अनुरूप मान, देने के लिये निश्चय किया। सव सभा सोच विचार कर रही थी कि ये क्या भेंट करेंगे?" आप स्वंय जाके वन भूषणों से श्रृंगार करा, लाके लीला स्वरूप प्रभु को सुता का हाथ पकड़ा के अर्पण कर दिया। फिर जो श्रीहरि भेष धारण किए लीला स्वरूप थे उन्हीं के साथ फेरे (भाँवरी) भी दिवाए, और धन संपचि इतना दिया कि जो जन्म भर योग्य भोग करने में न चुके । (१५५) श्रीरामरयनजी की धर्मपत्नी। (६०९) छप्पय । ( २३४ ) हरि, गुरु, हरिदासनि सों, रामघरनि सांची रही। आरज को उपदेश सुता उर नीक धारयो । नवधा, दशधा, प्रीति, आन धर्म सबै बिसाखौ ॥अच्युत कुल अनुराग प्रगट पुरषारथ जान्यौ । सारासार बिबेक, बात तीनों मन मान्यौ ॥ दासत्व, अनन्य, उदारता, संतान मुख, राजा कही। हरि, गुरु, हरिदासनि सों, रामघरनि सांची रही ॥ १२० ॥ (६४) वातिक तिलक। श्रीहरि, और श्रीगुरु तथा श्रीहरिभक्तों से, श्री "रामरयनजी" की । स्त्री सच्ची प्रीतियुक्त रहीं। आर्य (श्रेष्ठ)जनों का उपदेश हृदय में