पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७३८

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ARMANMLA-1-4 mM भक्तिसुधास्वाद तिलक । सुनाई, भई अति चपलाई, आयौ लिये तरवार, दै किवार, खोलि न्यारी है।। ४७६॥ (१५३) . वात्तिक तिलकं । श्रीमीरानी को राना ने विष भेजा सो तो सीस पर चढ़ा कर पान- कर ही गई, परंतु संतों का त्यागरूपी महाविष की झार भी न सह सही, जब विष से आप नहीं मरी, तब राना ने कई प्रतिहारों (चारों) से कहा कि "तुम यह मर्म लो जब वह किसी वैरागी के साथ एकांत बैठी हो तब शीघ्र भाकर समाचार कहो, उसी क्षण मैं पाकर उसको मार डालूंगा। एक समय श्रीमीराजी श्रीगिरिधरलालजी के साथ एकांत में रस रंग भरी वार्ता करती हँसती हुई चौपड़ खेलती थीं, बातचीत को सुनकर जाके चर ने राना से कहा कि "इस समय मीरा किसी से हँसी वार्ता कर रही है।” राना खग लेकर अति चपलता से आया, और बोला कि "खोल किवाड़।" आपने तत्कालही किवाड़ खोल दिये ।। (५९२) टीका । कवित्त । (२५१) "जाके संग रंगभीजि, करत प्रसंग नाना, कहाँ वह नर गयौ, बेगि दे वताइये” । “आगे ही विराजै, कछू तोसों नहीं लाजै, अy देखि सुख साजै, आँखें खोलि दरसाइय” ॥ भयोई खिसानौ राना, लिख्यो चित्र भीत मानो, उलटि पयानो कियौ, नेकु मन भाइये । देख्यों हूँ प्रभाव ऐप भाव मैं न भिधौ जाइ, विना हरिकृपा कहीं कैसे करि पाइयै ॥ ४७७॥(१५२) वात्तिक तिलक । ... राना मीराजी के साथ किसी मनुष्य को न देख पूछने लगा कि "तू जिसके संग रंग भीज के अनेक प्रेम प्रसंग करती रही, सो मनुष्य कहाँ गया ? शीघ्र वता," आपने उत्तर दिया कि "वे पुरुष तुम्हारे आगे ही विराजमान हैं, कुछ तुम से खजानेवाले नहीं, नेत्र खोल देखो, अब भी सब सुख साजते हैं।" रानाने देखा तो श्रीगिरिधरजी के हाथ में पासे हैं जोकि चौपड़ में डालने को लिये थे। तब अति लज्जित हुथा, मानों चित्रका लिखा