पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/७३०

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4 -MP 4t- 4 - - - - - ++ भक्तिसुधास्वाद तिलक । भागवतवेष से पाच्छादित पाया है, सो उसी वेष को प्रधान मान, हम- ने पूजन सत्कार किया है।" (५८३) टीका । कवित्त । (२६०) राजा रीझि पाँव गहे, कहे "ज बचन नीके ऐपै नैकु आप जाय तत्तु याको ल्याइये"। आये, दौरि पाँव लपटाय भूप भाय भरे, परे प्रेमसागर मैं, चरचा चलाइये ॥ चलिने न देन, सुख देत चले लोलमन, खोलि के भंडार दियो लियौ न रिझाइयै । उभै सुवा सारी कही एक वरधागे मेरे दई अकुलाय लई मानौ निधि पाइये ॥ ४६६ ॥ (१६०) वात्तिक तिलक । __राजा सुन, लजित और अति प्रसन्न हो, पंडितजी के चरण पकड़ कहने लगा कि "आपने बहुत अच्छे वचन कहे, परंतु आप चतुर्भुजजी के यहाँ तनक जाके इसका यथार्थ श्राशय लाइये।” पंडितजी सहर्ष करौली श्राये, भक्तराज ने दौड़कर चरणों में लिपट, बड़े भाव से पूजन किया । दोनों भक्तों ने प्रेमसागर में मग्न हरिचर्चा चला, परस्पर सुख लिया ॥ कुछ दिन रह परिडत चलना चाहते, राजा अनेक सत्संग सुख दे नहीं जाने देते । अन्त को चले, तो दोनों भक्तों के मन वियोग से चंचल हो गये। राजा ने अपना कोश (धनगृह) खोल दिया कि जो चाहिये लीजिये।" पर श्रीपण्डितजी ने कुछ भी न लिया । कहा कि "मैंने, आपकी भक्ति ही देख प्रति प्रसन्न हो, परम लाभ पाया, ये जो आपके शुक और सारिका हैं, इन दोनों में से एक मुझे दीजिये।" वे दोनों पक्षी प्रभु का नाम सुनानेवाले, राजा को बड़े ही प्रिय थे, इससे अकुला- के एक (सारिका) को दिया । ब्राह्मण ने उसे निधि के समान सानन्द लिया। (५८४) टीका । कवित्त । (२५९) श्रायौ राजसमा, बहु बातनि अलारौ जहाँ, बोलि उठी सारो "कृष्ण कहाँ,” झारि डारे हैं । पूच नृप “कहाँ" "अहो ! लहौ सब याही सों जू, पच्छी वा समाज रहै हरि पानप्यारे हैं । कोटि कोटि रसना वखानों