पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६९१

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६७२ श्रीभक्तमाल सटीक । प्रथम संकल्प कर चुका हूँ कि “साष्टांग ही से जाकर प्रभु के दर्शन करूँगा, उस प्रतिज्ञा को मैं पालन किया चाहता हूँ, आप लोग भी मुझे यही वरदान दीजिये कि इसी प्रकार जाकर दर्शन करूँ।" पंडों ने उत्तर दिया कि प्रभु की आज्ञा है, चढ़िये, और यह भी आज्ञा हुई है कि “जो सुमिरनी बनाकर लाये हैं, सो, हमको बहुत प्रिय है, शीघ्र धाकर पहिरावै ॥ ऐसा वचन सुन श्रीलाखाजी ने निश्चय प्रभु की आज्ञा जानी, क्योंकि सुमिरनी की बात पते की थी। प्रभु का अनुशासन मान चढ़के चले, और भक्तजी यह कहने लगे कि "मैंने जान लिया कि मुझसे लघु जीव को सर्कार अपने आश्रितों में चढ़बढ़ के किया चाहते हैं, आप प्रेम की पोथी पढ़पढ़ मेरे ऊपर कृपा विस्तार किया चाहते हैं।" भक्तजी ने जा प्रणाम कर नेत्रों से दर्शन पाय, प्रभु के ऊपर तन मन प्राण सव न्यवछावर कर दिये आप श्रीजगन्नाथजी को अत्यंत प्यारे थे इससे प्रभु अपने निकट से पृथकू नहीं होने देते थे। (५३४) टीका । कवित्त । (३०९) । बेटी एक क्वाँरी व्याहि देत न विचारी मन धन हरि साधुनि को, कैसे कै लगाइयै । "कीजै वाको काज" कही जगन्नाथ देवजू ने “लीजे मोपे द्रव्य" उर नेकहूँ न भाइये । विदा पैं न भए चले हग भरि लये, गये आगे नृप भक्त मग चौकी अटकाइये । दियो है सुपन प्रभु जिनि हठ करौ अज हुंडी लिख दई लई बिने कै जताईयै ॥ ४२७॥ (२०२) वात्तिक तिलक । श्रीलाखाभक्तजी की एक बेटी घर में कुँवारी (कुमारी) थी, इस विचार से उसका विवाह नहीं करते थे कि "मेरे पास जो धन है, सो श्रीहरि और संतों का है, इसमें से उसमें कैसे लगाऊँ ? ॥" श्रीजगन्नाथजी ने स्वयं प्राज्ञा दी कि "हमसे द्रव्य लेकर उसका विवाह अवश्य करदो।" परन्तु आपके मन में यह बात नहीं आई, कुछ दिन रहकर फिर गृह को चले, किन्तु द्रव्य लेने के भय से प्रभु के समीप विदा होने नहीं गये। प्रभु के वियोग से नेत्रों में जल