पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६७२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- - + + --144 भक्तिसुधास्वाद तिलक। ............. असो मगमाँझ,भोग धस्यौ पै न खाइयै ।। कही श्रीगुसाइजू को, मोकों ये न भाई कछू, चाहो जौ खवावो, तो पै वाकों जा मनाइये । “वाको हुतो दाव मोपे, सो तौ भाव जान्यौ नहीं, कही मोसों वा सो कुमारै बेगि ल्याइय" ॥४११ ॥ (२१८) वात्तिक तिलक । जब उस साधु ने आपको धक्का देकर निकाल दिया, तब आप (श्रीगोविन्दसखाजी)जाके कुण्ड तीर बैठे, और ऐसा कहने लगे कि "वन में जाने को तो इस मार्ग से निकलेगा सही, जो अपने बैरागी को मुझे धक्का देने में लगा दिया, तिसका पलटा फल में भुगता ही लूँगा।" अब तो लालजी के हृदय में बड़ा ही सोच पड़ा कि “वह सखा अपनी दाव लिये विना नहीं छोड़ेगा वह मार्ग ही में बैठा है ।" आपके भागे भोग धरा गया, परन्तु ग्रहण नहीं किया । प्रगट होकर श्रीगोसाइजी से कहा कि "मुझको यह भोग वस्तु कुछ नहीं अच्छी लगती. जो मुझे खिलाया चाही तो मेरे सखा को जाकर मना लायो, क्योंकि उसका दाव था सो मैंने नहीं दिया, तब उसने आकर मुझे गुल्ली मारी, उस भाव को तो साधु जान सका नहीं, उसको दुर्वचन कहकर धक्का दे दिया, वह क्रोध में भरा है, सो प्रिय कुमार को श्राप शीघ्र लिवा लाइये ॥” (५१४) टीका । कवित्त । (३२९) वन बन खेले विन बनत न मोको नेकु, भनत जु गारी धनगनत लगावैगो । सुधि बुधि मेरी गई, भई बड़ी चिंता मोहि, ल्याइये जू हँदि कहूँ चैन ढिग आवेगो ॥ भोग जे लगाये, मैं तो तनक न पाये, रिस वाकी जब जाये, तब मोहूँ कछु भावैगो । चले उठि धाये, नीठ नीठ के मनायल्याये, मन्दिरमैं खायमिलि, कही गरें लागो।। ४१२ ॥(२१७) बात्तिक तिलक। श्रीलालजी ने गुसाइजी से कहा कि “देखिये, वन वन प्रति खेले विना, मेरा मन प्रसन्न नहीं ही होता, और वह वनमार्ग में बैठा मुझे गालियाँ दे रहा है, जो उधर मैं जाऊँगा तो अनेक चोट