पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६५०

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । nmenuintHMInhindrarape (१२५) श्रीसदन (सधन) जी। (४९०) टीका । कवित्त । (३५३) सदना कसाई, ताकी नीकी कस पाई, जैसे वारैवानी सोने की कसौटी कस पाई है। जीव को न वध करे, ऐप कुलाचार दर चे मांस लाय, प्रीति हरि सो लगाई है। गंडकीको सुत बिन जाने तासो तौल्यों करे, भरै हग साधु आनि पूजे, पै न भाई है । कही निसि सुपने मैं “वाही ठौर मोंकी देवी, सुनौं गुनगान, रीझी हिय की सचाई है"॥३६४ ॥ (२३५) वात्तिक तिलक ! सधन जाति के कसाई थे, उनकी (दुःखादिरूप) कसौटी में बहुत अच्छी कस (परीक्षा) उतरी, जैसे बारह बानी सोना की कस कसौटी में उपटती है । यद्यपि जन्म कसाई कुल में हुधा तथापि श्राप जीव को नहीं वध करते थे, अपने कुल का भाचरण जान और कसाइयों के यहाँ से मांस लाकर बेचा करते थे। पूर्वसंस्कार के वश स्वाभाविकही श्रीहरि से पीति लग गई, सप्रेम नाम स्मरण किया करते थे। देवयोग से इनके पास एक गंडकीसुत (शालभामजी) थे उन्हीं से, बिना जाने माँस तौल २ के बेचा करते थे, एक साधु ने देखकर कहा कि "ये तो शालग्रामजी हैं इनसे मत तोलो, लामो हम इनकी पूजा करेंगे।" श्रीसधनजी ने दे दिया । संत लाके पंचामृत मादिक संस्कार करके पूजा करने लगे, परन्तु वह पूजा प्रभु को प्रिय न लगी, साधु से रात्रि स्वम में धाज्ञा दी कि हमको उसी सधना के यहाँ पहुँचा दो, वह हमारा नाम गुण सप्रेम गाता है सो सुनते उसके हृदय की सचाई पर हम रीझ गये हैं।" (४९१) टीका । कवित्त । (३५२) लैक आयौ साधु, "मैं तो बड़ो अपराध कियौ, कियौ अभिषेक सेवा करी पै न भाई है । ए तो प्रभु रीझे तो पै जोई चाही सोई करौ, गरो भरि आयो सुनि, मति बिसराई है ॥ वेई हरि उर धारि.