पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६४७

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६२८ श्रीभक्तमाल सटीक । गाँव केतिक नवीन दिये, लिये कर जोरि "मेरी फल्यो भाग दाव है" ॥३६१॥ (२३८) ., वात्तिक तिलक । हाथी अापके दर्शन कर वचनामृत सुन, प्रेम से अधीर होगया, नेत्रों से जल की धारा चलने लगी, आपने कृपा से हाथी को धीरकर, भाक्विभाव दे, कान में भगवन्नाम मंत्र सुना दिया, "गोपालदास" नाम उसका रक्खा, गले में श्रीतुलसीजी की माला पहिना दी। आपका प्रभाव प्रगट देख दुष्टशिरोमणि राजा भी आपके समीप श्रा, चरणों में लिपट गया। इसके हृदय में भी प्रेम उत्साह हुआ, और अत्यन्त अधीर होकर, वह ग्राम तथा और कई नवीन ग्राम देकर, हाथ जोड़ प्रार्थना करने लगा कि "मेरे बड़े भाग्य हैं जो आपके दर्शन हुए।" (४१७) टीका | कवित्त । (३५६) भयो गजराज भक्तराज, साधु सेवा साज, संतनि समाज देखि करत प्रनाम है । प्रानि डारे गोनि, बनजारनि की पारन सो, आयेई पुकारन व जहाँ गुरुधाम है ।। श्रावन महोच्छौ मध्य, पावत प्रसाद सीथ, बोले आप हाथी सों, “यों निंद्य वह काम है" छोडिदई रीति, तब भक्तन सों प्रीति बढ़ी, संगही समूह फिरे फैलि गयो नाम है ॥३६२॥(२३७) वात्तिक तिलक । इस प्रकार श्रीरसिकमुरारिजी दुष्ट राजा को परचो दे, मत्त गजेन्द्र को शिष्य कर, साथ में ले, अपने स्थान में आए । अब तो वह गजराज पूरा भक्तराज हो गया, सन्तों को देखकर प्रणाम करता, और सेवा भी करता था, जहाँ बनजारे ( ब्यापारी) लोग रहते वहाँ से आदा दाल चावल की गोन (गठरी) स्थान में खे आता था। गजभक्त के गुरु स्थान में आकर उन बनजारों ने पुकार किया। उस हाथी का नियम था कि सन्तों के महोत्सव भण्डारे में पाता, सन्तों का उच्छिष्ट प्रसादी पाता था। जब भण्डारे में