पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६३७

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श्रीभक्तमाल सटीक। (१२०) श्रीमधुगोसाईंजी। ( ४७४ ) टीका । कवित्त । ( ३६९ ) श्रीमधुगोसाई आये वृन्दावन, चाह बढ़ी, देखें इन नैननि सों कैसोधौं सरूप है । हुँदत फिरत वन वन कुंजलता द्रुम, मिटी भूख प्यास, नहीं जाने छाँह धूप है । जमुना चढ़त. काटकरत, करारे जहाँ, वंसीवट तट डीठ पर वै अनप है। अंक भरिलिये, दौर अजहूँलो सिरमौर चाहै भाग भाल साथ गोपीनाथ रूप है ॥ ३८॥ (२४६) वात्तिक तिलक। श्रीमधुगुसाईजी धामनिष्ठा में दृढ़, "श्रीमधु” नाम श्रीवृन्दावन में बंगाल से पाए, तब यह चाह अापके मन में बढ़ी कि "मैं अपने नेत्रों से श्रीकृष्णचन्द्र को देखू कि वह रूप कैसा है।" इस प्रेम की उत्कंठा में भरे हुए, भूख प्यास, छाया, धूप, नींद, सब कुछ छोड़, बन बन, प्रति कुंज और लता-वृक्षों के बीच में हूँढ़ते फिरते थे॥ चौपाई। "प्रियतम पद पंकज जव देखौं । तब निज जन्म सफल करि लेखी ॥" दातिक तिलक ! वंशीवट के निकट में जहाँ श्रीयमुनानी बढ़ी हुई, करारे काटि रही थीं, वहाँ आपने कृपाकर अनूप रूप से दर्शन दिये। मधुगुसाईजी दौड़ भक्तवत्सलजी को अंक में भरकर, अनिर्वाच्य परमानन्द को प्राप्त हुए। चौपाई। "ऐसो सुख बरनिय केहि भाँती । जनु चातकी पाइ जल स्वाती ॥१॥ हरिदर्शन फल परम अनूपा । जीव पाव निज सहज स्वरूपा ॥ २॥" प्रेम हो तो ऐसा, दर्शन की प्यास हो तो ऐसी ॥ तदनंतर उस साक्षात् रूप से भगवान अर्चामूर्ति "गोपीनाथ” रूप हो, वहाँ विराजे, अब तक जिसके बड़े भाग हों, वह रसिकसिरमौर के दर्शन करता है। प्रेम की जय, जय, जय ॥