पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६२२

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AndreduantumAa dsunn -rintainindenternand an- भक्तिसुधास्वाद तिलक । भावना से प्रस्तुत रहा करते थे। एक समय युगल मंत्र का जाप कर रहे थे, उसी के मध्य श्रीभगवत् का वचनामृत हुया कि तुमको "रसिक" कहकर लोग नाम लिया करेंगे। किसी भक्त ने आपको चोया (इत्र ) भेंट किया, जिसको वह अति उत्तम समझता और जो उसके जी को बहुत ही भाता था। आपने उसको ध्यान से होली में प्रभु के ऊपर और देखने में तोश्रीयमुनाजी के पुलिन (रेत) में, जहाँ वैठे थे, डाल दिया । उसने खेद कर मन में कहा कि “ऐसा उत्तम विष्णु तैल,सोखोगया!"सुजानरसिकजी ने उसके मन कीजानली। आपने एक दास को आज्ञा की कि “इनको ले जाकर श्रीवाँकेबिहारी- लालजी के दर्शन कराओ।" लिवा जाकर उसने पट उघार के दिखाया तो श्रीविहारीजी के वन चोभासे सराबोर, तथा सारा मन्दिर वैसे ही सुगन्ध से भरपूर पाया कि जैसा सुगन्ध उसके निवेदित चोया में था। श्रीस्वामी- जी के इस प्रभाव को समझकर वह बड़ा लजित और हर्षित हुआ। __एक मनुष्य आपके पास शरणागत होने आया, उसने एक पारस- मणि को भेंट में दिया । आपने पहिले उसे “पाषाण कह यमुनासरित के जल में फेंकवा दिया। तब उसको शिष्य किया। उस समय का बादशाह (अकवर), वेष छुपाके तानसेन के साथ 'जाकर आपके दर्शनों से कृतार्थ हुआ। संवत् १६ ११ से १६६२ के मध्य किसी समय की यह घटना है। ऐसे ऐसे चरित आपके नाना प्रकार से गाए गए हैं ॥ . (११३) श्रीहरिवंशजी के शिष्य श्रीव्यासजी। (४५९ ) छप्पय । ( ३८४ ) उतकर्ष तिलक अरु दाम कौ, भक्त इष्ट अति “व्यास" के॥ काहू के आराध्य मच्छ, कच्छ, नरहरि, सूकर। बामन, फरसाधरन, सेतुबंधन जु सैलकर ॥ एकन के यह रीति नेम नवधा सों लायें। सुकुल सुमोखन सुवन