पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६०१

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+- +-+ + ++ + + + + + + श्रीभक्तमाल सटीक । गिरा सदा आनंददा । "विट्ठलदास" माथुरमुकुट भयौ अमानी मानदा ॥८४॥ (१३०) वात्तिक तिलक। श्रीविठ्ठलदासजी उत्तम माथुर चौवे ब्राह्मण थे सवहि मानपद प्रापु अमानी।' श्रापको तिलक ( उर्ध्वपुण्डू) और कराठीमाला से बड़ी प्रीति थी । गुण ही गुण को (अवगुण को नहीं) उर में रखते थे। सन्तों भक्तों की बड़ाई जन्म भर आपकी जिह्वा पर रही । सरल हृदय सन्तोषशील, और परहितरत थे, ऐसा भारी दुष्कर कर्म किया कि उत्सव में पुत्र को भगवत् की न्यवहार करके दान कर दिया ॥ सदा “गोविन्द" नाम ऐसे प्रेम से उच्चारण किया करते थे कि सब को आनन्दमग्न कर देते थे। (४३२) टीका । कवित्त । (४११) भाई उमै माथुर, सुराना के पुरोहित है, लरि मरे आपस में, जियो एक जाम है । ताको सुत विट्ठल सु दास सुख रासि हिये लिये, वैस थोरी भयो बड़ी सेवै स्याम है ॥ बोल्यो नृप सभा मध्य, “आवत न विप्र सुत, छिप लैक श्रावो" कही कह्यौ “पूजे काम है" 1 फेरि के बुलायो "करी जागरन याही गैर," काहू समझायो “गावै नाचे प्रेमधाम है" ॥३४८ ॥ (२८१) बात्तिक तिलक । "श्रीविठ्ठलदासजी” के पिता और चचा उत्तम माथुर चौवे ब्राह्मण, और राना के पुरोहित थे, दोनों भाई आपस में लड़कर पहर भर में मर गए । विट्ठलजी उस समय थोड़ी ही बैस के थे, पर लड़कपन ही से श्राप सुखगशि श्याम को अपने हृदय में रखते थे। राना के पास, जाने आने की आवश्यकता नहीं समझते थे। एक दिन राना ने सभा में पूछा कि "वह विप्रसुत भाता नहीं है ! क्या बात है ?” दुर्जनों से कहा कि "अपने तई लोभरहित हरिदास अनुमान करता है।" राना ने शीघ्र बुला भेजा, आपने उत्तर दिया कि "श्रीहरिगोबिन्दकृपा से राना के प्रताप से मेरी कामना पूर्ण है