पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/६००

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भक्तिसुधास्वाद तिलक । (१.०३) श्रीक्षेम गुसाईजी। (४३०) छप्पय । (४१३) "रामदास" परतापते, "षेम गुसाई" मकर ॥ रघुनन्दन को दास, प्रकट भूमंडल जाने। सर्वस सीता- राम और कछु उर नहिं आने ॥ धनुष बान सों प्रीति, स्वामि के आयुध प्यारे । निकट निरंतर रहत होत कबहूँ नहिं न्यारे॥ सूरवीर हनुमत सदृश, परम उपा- सक प्रेम भर। "रामदास" परतापते, "षेम गुसाई" षेमकर ।। ८३॥ (१३१) वात्तिक तिलक । गुरु महाराज श्रीरामदासजी के प्रताप से श्रीक्षेम गुसाइजी कल्याण करनेवाले हुए । जगत्भर में यह विख्यात है कि आप श्री- रघुनन्दनजी के परम भक्त थे, कुछ भी हृदय में नहीं लाते थे केवल श्रीसीतारामजी को अपना सर्वस्त्र जानते थे, स्वामी के घायुध धनुष वाण आपको अति प्रिय थे, धनुष बाण से अतिशय प्रेम रखते थे। आपका मन श्रीयुगलसकार से अलग नहीं होता, सदैव श्रीचरणों ही में रहता था। श्रीमारुतिजी की छाया सूरवीर, अनन्य उपासक और परम प्रेमी थे। (१०४) श्रीविठ्ठलदासजी। (४३१) छप्पय । (४१२) "बिहलदास” माथुरमुकुट भयौ अमानी मानदा॥ तिलक दाम सों प्रीति, गुनहिं गुन अंतर धायौ । भक्तन को उतकर्ष जनम भरि रसन उचायौ ॥ सरल हृदै संतोष जहाँ तहाँ, पर उपकारी । उत्सव में सुत दान कियौ कर्म दुसकर भारी॥ हरि गोविन्द जै जै गोविन्द १ पेमकर-क्षेमकर ॥