पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५८६

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Hurtant-1 - AuAHAN E भक्तिसुधास्वाद तिलक । ५६७ धारण कर, पाय, संतों को देख देवी प्रति अनुरागयुक्त नम्र हो बोली कि “मजी संतो। आप लोग भूखे क्यों पड़े हो ? रसोई कीजिये।” आपने उत्तर दिया कि “इस देवी और देवी के भक्तों की हिंसा देख मन में अति ग्लानि व्याप्त हो गई है। अव रसोई कौन करे।"उसने विन्य किया कि “वह देवी मैं ही हूँ, मुझे यह दान दीजिये कि मुझे शिष्य कर, रसोई करके, भगवत् का भोग लगा प्रसाद पाइये पवाइये ॥" (४१६) टीका । कवित्त । (४२७) करी देवी शिष्य, सुनि, नगर को सटकी, यो पटकी लै खाट जाकी बड़ी सरदार है। चढ़ी मुख बोले "हाँ तो भई हरिब्यास दासी, जो न दास होहु तो पै अभी डारौं मार है ॥ आये सब भृत्य भये मानौं नये तन लये, गये दुख पाप ताप, किये भव पार है। कोऊ दिन रहे, नाना भोग सुख लहे, एक श्रद्धा के स्वपच आयौ पायौ भक्ति- सार है ॥३३६॥ (२६०) वात्तिक तिलक । आपने देवीजी की प्रार्थना सुन उनको शिष्य किया। देवी भगवत्मंत्र सुन नगर को दौड़ी, शाके जो उस नगर का मुखिया था, उसको खाट समेत उठा, भूमि पर पटक, छाती पर चढ़के कहने लगी कि "मैं तो श्रीहरिव्यासजी की शिष्य दासी हुई, तुमलोग भी जो उनके शिष्य दास न होगे तो अभी सबको मार डालूँगी।" देवी की आज्ञा सुनके सबके सब प्राके श्रीहरिव्यासजी के शिष्य हुए, मंत्र, माला, तिलक, मुद्रा ग्रहण कर मानों सबको नवीन शरीर प्राप्त हुए। सबों के दुःख, पाप, ताप छूट गये । भगवद्भजन कर संसार से पार हुए। श्रीहरिव्यासजी वहाँ कुछ दिन रहे नाना प्रकार के सत्कार भोग सुख प्राप्त हुए। पश्चात् भापके समीप एक श्वपच (भंगी) बड़ी श्रद्धा से पाय त्राहि त्राहि कर साष्टांग भूमि पर गिर पड़ा,आपने उसको भी सब भक्तियों का सार श्रीभगवन्नाम उपदेश दिया। वह सप्रेम रटकर भव पार हुआ॥