पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५७२

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MAHARASHRINA refundmasti भक्तिसुधास्वाद तिलक । ५५३ सकै, थकै सुनि, तन भाव रूप करि लियो है ।। मानसी में पायो दूध भात, सरसात हिये लिये रस नारी देखि बैद कहि दिया है। कहाँ लौं प्रताप कहीं, आपही समझि लड्डु, देहु वही रीमि जासों आगे पाय जियो है ॥३२८॥ (३०१) __वात्तिक तिलक । श्रीजगन्नाथधाम से महाप्रभु कृष्ण चैतन्यजी की आज्ञा पाके.पापने श्रीवृन्दावन श्रा, श्रीराधाकुण्ड में निवास किया। प्रापकी रहन-सहन, प्रभु के रूप की चाह कही नहीं जाती, सुन सुनके मति थक जाती है, स्वस्वरूप तथा पर स्वरूप की भावना करते करते इस शरीर और भावना- रूप दोनों ही को एक कर लिया । एक समय आपका शरीर सरुज हुआ तब आपने मानसी सेवा में प्रभु को दूध भात भोग लगाया। और श्रीनन्दलालजी का दिया हया वही प्रसाद अपने सरस हृदय से ग्रहण किया । उसका रस इस पांचभौतिक शरीर में व्याप्त हो गया। वैद्य ने नाड़ी देखकर सबों से कह दिया कि “इन्होंने तो माज दूध भात पाया है।" हे सज्जनो! मैं इन महानुभाव का प्रताप कहाँ तक कहूँ, आप सब स्वयं समझ लीजिये । जैसा आगे, श्रीरघुनाथ गुसाईजी भावना कर जिए थे कृपा करके वैसा ही वरदान मुझे भी दीजिये कि जिसको पाके आगे कृतकृत्य होऊँ॥ (४००) छप्पय । (४४३) नित्यानंद कृष्णचैतन्य की, भक्ति दसोंदिशि बिस्तरी॥ "गौड़ देस" पाखंड मेटि कियो भजन परायन । करुणा- सिंधु कृतज्ञ भये अगनित गति दायन ॥ दसधा रस आक्रांति, महतजन चरण उपासे। नाम लेतनिहपाप दुरित तिहि नरके नासे ॥ अवतार विदित पूरब मही १ "दसो दिसि" चारो कोन और नीचे ऊपर सहित दण दिशा । २ "दसधा बनवधा भक्ति तथा प्रेमाभक्ति । १