पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५६३

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

44+ + + + + - - - - art- 1 4 + + ++ श्रीभक्तमाल सटीक । एक समय माधवजी को संग्रहणी के रोग से मल पड़ने लगा, आप समुद्र तीर में जा पड़ रहे । जब शौच के लिये पानी चाहा, तो श्रीजगन्नाथजी ने स्वयं जल लाके, सब देह को धोया। श्रीमाधवदासजी ने देखकर जाना कि “ये प्रभु हैं," हाथ जोड़ कहने लगे कि “आप अपनी ईश्वरता छोड़ ऐसा लघु कर्म करके मुझको अत्यन्त दुख (३८९) टीका । कवित्त । (४५४) "कहा करौं, अहो ! मोपै रहो नहीं जात नेकु,” “मेटी विथा गात" मोकौं विथा वह भारी है"। "रहे भोग शेष, और तन में प्रवेश करें, तातें नहीं दूर करौं, ईशता लै दारी है। वह बात साँच, याकी गाँस एक और सुनौ, साधु को न हँस कोऊ यह मैं बिचारी है”। देखत ही देखत मैं, पीड़ा सो बिलाय गई, नई नई कथा कहि भक्ति विसतारी है ॥३ १६॥ (३१०) वात्तिक तिलक। श्रीजगन्नाथजी ने उत्तर दिया कि “मैं क्या करूँ, भक्तों का दुःख देख मुझको किंचित् काल भी नहीं रहा जाता।" श्रीमाधवदासजी ने कहा कि "मेरी व्यथा ही मिटा क्यों नहीं देते ?" प्रभु बोले कि "मिटा देने में मुझे एक भारी व्यथा है, कि जो मिटा दूं तो कर्म के भोग का शेष रह जाय, फिर उसको दूसरा शरीर धरके भोगना पड़े। इसी से तुम्हारा दुःख नहीं छुड़ाया अपनी ईशता को छोड़ तुम्हारी सेवा की ॥" दो० "तुलसी रेखा कर्म की, मेटत हैं नहिं राम । में तो अचरज नहीं, समुझि किया है काम ।।" सो यह वार्ता भी सत्य है, पुनः प्रभु ने कहा कि “इसकी एक दूसरी गाँस सुनो, जिस लिये मैंने सेवा की है जिसमें कोई मनुष्य किसी भक्त की इसी न करें कि देखो भगवद्भक्ति का कुछ फल नहीं है, यह सन्त कैसे दुःख में पड़े हैं । कोई एक लोटा जल तक देनेवाला नहीं।' इस प्रकार विचार के मैंने सेवा की है।