पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५५८

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++ + -arrerna++ + + + +--+- + +- - +- +reatment भक्तिसुधास्वाद तिलक । वार्तिक तिलक । श्रीकवीरजी के जाने के अनंतर श्रीतत्वाजी जीवाजी के ग्राम देश के ब्राह्मण लोग आपस में कहने सुनने लगे कि "कवीरजी की जाति जानते हो?” किसी ने कहा "हाँ, जानते हैं, ये जुलाहा हैं" "तव तो तत्वा जीवा का ब्राह्मणत्व नष्ट हुअा!" दो. "जाति न पूछो सन्त की, परखो उनका ज्ञान । मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥" इस प्रकार कुमंत्र कर, दोनों भक्तों को ब्राह्मणों ने अपनी पंक्ति से न्यारा कर दिया । और इनकी कन्या का भी किसी ने विवाह न किया। तब एक भाई ने परम धीर श्रीकवीजी के समीप श्रीकाशीजी जाके प्रणाम किया, आपने पूछा कि “किस हेतु से आये हो ?"इन्होंने अपना दुःख निवेदन किया । श्रीकवीरजी ने आज्ञा दी कि "तुम्हारे दोनों भाइयों के एक एक कन्या, एक एक पुत्र है, सो आपस में विवाह कर दो इसमें तुम्हारी कोई घटी नहीं होगी तुम्हारी भक्ति की अति सरसाई होगी।" आज्ञा पा, अति प्रसन्न हो घर में आ, वैसा ही करने को उद्यत होगये। विवाहादिक के गीत सुनकर सब लोगों ने आपका निश्चय जाना। तब तो जातिवाले ब्राह्मणों में बड़ी ही शंका हुई और आपस में कहने लगे कि इन दोनों की मति में भ्रम हो गया। यह क्या अनर्थ कर रहे हैं। (३८३) टीका । कवित्त । (४६०) “करें यही वात, हमैं और न सुहात," आये सबै हा हा खात, यह छाँड़ि इठ दीजिये । पूछचे को फेरि गये, करौ ब्याह जौ पै नये, दंड करि नाना भाँति, भक्ति दृढ़ कीजिये ॥ तव दई सुता, लई पाँति न प्रसन्न है के, पाँति हरिभक्तनि सों सदा मति भीजिये । विमुख समूह देखि समय बड़ाई करें, धरै हिय माँझ, कहैं पन पर रीझिये ॥ ३१४॥ (३१५) वात्तिक तिलक । भगिनी भ्राता (वहिन भाई) का विवाह करने में सन्नद्ध देख,