पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/५३१

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५१२ ran+++++and u tarter-arimurtamen and- श्रीभक्तमाल सटीक। ___ ज्ञान सूचक यह स्तुति सुनते ही बालकरूप दुरा के, श्रीपीपाजी ने निजरूप से राजा को दर्शन दे, डाट के कहा कि “तुझे वह दिन भूल गया कि जब शिष्य हुआ था, रानी राज इत्यादि की लाज छोड़के किस प्रेम रंग में पगा था सो रङ्ग तेरा कहाँ गया?" (३६३ ) टीका । कवित्त । (४८०) कियौ उपदेश, नृप हृदे मैं प्रवेस कियौ, लियो वही पन, श्राप आये निज धाम है । बोल्यो, एक नाम-साधु “एक निसि देड तिया," "लेहु कही भागौं,” संग भागी सीता बाम है ॥ मात भये चलें नाहि, रैन ही की आज्ञा प्रभु," चल्यो हारि,आगे घर घर देखों ग्राम है। आयौ वाही ठौर, “चलो माता । पहुँचाय श्रावौं,” श्राय गहे पाँव, भाव भयो, गयो काम है ॥३०२॥ (३२७) चात्तिक तिलक।। श्रीपीपाजी ने उपदेश दिया, और वह उपदेश राजा के हृदय में श्रीसीतारामकृपा से जा भी बैठा । सूर्यसेनमल ने पूर्ववत् वही अपना नियम भगवत्पूजा तथा साधुसेवा का धारण किया और श्रीपीपाजी प्रसन्न होके अपने स्थान में चले आये॥ संत रूप बनाए एक नाम का साधु परंतु वास्तविक दुराचारी श्री- पीपाजी से बोला कि “सहचरी को एक राति के लिये मुझे दीजिये" आपने आज्ञा दी कि ले जाइए उसने कहा कि मेरे साथ दौड़ती चलो । आज्ञानुसार श्रीसहचरीजी उसके संग दौड़ी (भागी) पर भोर होते ही आप यह कह ठहर गई कि “श्रीमहाराजजी ने मुझे केवल राति ही भर की आज्ञा दी थी हार के वह दुराचारी वहाँ से ले जाने के लिए पालकी लेने को चला गया। आगे के गाँव में घर घर उसको श्रीसीता-सहचरी ही देख पड़ने लगी । संत भगवंत की कृपा से उसकी मति सुधर गई कामबुद्धि जाती रही, भाव भक्ति उपज आई त्रसित और लज्जित हो वहीं पहुंचा जहाँ श्रीसहचरीजी रुकी बैठी थीं। आपके चरणों पर गिर के वह बोला कि "हे माता! आप मेरा अपराध क्षमा कीजिये, चलिये, श्राप को श्रीमहाराजजी के