पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४७७

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४५८ MHIRI- 9 . 4 श्रीभक्तमाल सटीक। श्रीभगवदयश सुनाके जिला लिया । तब तो देषी लोग आपके चरण- कमल पर गिरकर शुद्ध भावभक्ति से हरिशरणागत हुए। (६४) श्रीअल्हजी [अर्चावतारनैष्ठिक] (३०३) टीका । कवित्त । (५४०) चले जात अल्ह, मग लाग बाग दीठि परयो, करि अनुराग हरिसेवा बिस्तारिये । पकि रहे श्राप माँगे माली पास भोग लिये, कह्यो "लीजै", कही, झुकि आई सबडारियै ॥ चल्यो दौरि राजा जहाँ जायकै सुनाई बात, गात भई प्रीति आधुतट पाँय धारियै । आवत ही लोटि गयो, “मैं तो जू सनाथ भयो, देवोले प्रसाद" भक्ति भाव ही संभारिय ॥ २४६ ॥ (३८०) वार्तिक तिलक । श्रीअल्हजी महाराज की भगवत्-प्रतिमा निष्ठा की महिमा प्रशंसा किससे हो सकती है, एक दिन आप किसी तीर्थ को जाते थे, मार्ग में आपने पक्के रसालों की एक राजवाटिका देखी । “भयउ रमापति-पद-अनुगगा" वहीं बड़े प्रेम से श्रीसकार की षोडशोपचार पूजा करने लगे । भगवत्भोग के लिये माली से आँब माँगे, उसने रूखेपन से कहा "तोड़ लो।" आपने वृक्ष पर दृष्टि डाली, वहीं पक्के आँबों से लदी डालियाँ श्रीसिंहासन के निकट झुक आई । आपने बड़ी सुगमता से रसालफल तोड़कर श्रीयुगलसर्कार को भोग लगाए। माली अपने राजा के पास दौड़ा गया, सब वार्ता जनाई । राजा या आपके पदारविन्द पर लोटने लगा और प्रेम भाव में मग्न हो गया। वह बोला “मैं सनाथ हुश्रा, मुझे प्रसाद दीजिये” भक्ति भाव का माहात्म्य समझना चाहिये कि जहाँ ब्रह्मादिक सीस नवाते हैं वहाँ वृक्ष और महीपति का झुकना कौन सी बड़ी बात है ॥

  • पाठान्तर "आषतट"-गिरते पड़ते ।।