पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४७१

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४५२ श्रीभक्तमाल सटीक। दादशी की श्राधी रात के समय भगवत् उसी ढंग से आपके साथ गाड़ी पर चले, आपके आनन्द की वार्ता ही क्या है ? हाँ, श्रीमग- वान को गाड़ी पर चढ़ा ले चलने के पहिले श्रीरामदासजी ने भूषण सब उतारकर मन्दिर ही में छोड़ दिए, क्योंकि आप द्रव्य धन के मुखे तो थे ही नहीं आपको तो केवल श्रीभगवत् के चरणों की सच्ची चाह थी। बड़े भोर जब मन्दिर खोला गया तो सबों ने देखा कि उनाड़ पड़ा है। जान गए कि रामदास ही ले गए। लोगों ने आपका पीछा किया, दौड़कर समीप पहुँचे कि जहाँ से गाड़ी दिखाई देने लगी, तथा आपने भी देखा कि पीछा करनेवाले श्रा पहुंचे। आपको भारी चिन्ता हुई कि “अब क्या बुद्धि चलाऊँ ?” भगवत् ने आज्ञा की कि "उस समीपस्थ वापी में मेरी प्रतिमा छुपादो।" ऐसा ही करके आप गाड़ी पर पाँव फैला चैन से लेट रहे । गाड़ी धीरे धीरे हाँक दी (चला दी, खड़ी नहीं रक्खी)।वे लोग आ पहुंचे, गाड़ी जो चली जा रही थी उसको पकड़कर श्रीरामदासजी को बड़ी मार मारी वरन् आपकी देह में बरछी चुभा दी॥ (२९७) टीका । कवित्त । (५४६) देखे चहुँदिशि गाड़ी, कहुँपै न पाये हरि, करि पछतावो, कह "भक्त के लगाई है"। बोलि उठ्यो एक “एहि ओर यह गयो हता, जाय देखें बावरी को लोह लपाई है ॥ दासको जु डारी चोट, भोट लई अंग मैं ही, नहीं मैं तो जाऊँ" बिजै मूरति बताई है। "मेरी सम सोनो लड्डु,” कही जन “तोलि देहु" "मेरे कहाँ ?" वोल्यो "बारी तिया के," जिताई है ॥ २४४ ॥(३८५) बात्तिक तिलक । मारपीट के अनन्तर उन सबने उस गाड़ी में चारों ओर श्री. भगवान को ढूँढा, परन्तु कहीं नहीं पाया तब वे सब पछताने लगे कि कि 'व्यर्थ ही हमने भक्त को कलंक लगाया तथा चोट लगाई।' इतने १ "विज" दूसरी । पाठान्तर "गरी" (गड़ी)