पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४६४

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- 404 .. . .. . भक्तिसुधास्वाद तिलक। ४४५ में आपने घर का सब धन उठा दिया, वरंच महाजनों से कई सहस्र रुपये ऋण भी लेकर साधु भक्तों को खिला दिये, यहाँ तक कि आप का नाम "निष्किञ्चन" प्रसिद्ध हो गया। जब ऋण भी नहीं मिलने और काम नहीं चलने लगा, तो साधु- सेवा ही के निमित्त चारीपर पड़े, इस प्रकार से कि हरिविमुखों ही का.धन लेते और भगवद्भक्तों को कदापि कुछ कष्ट नहीं देते थे। एक बेर कुछ साधु आपके द्वार पर आ निकले। उनके भोजन के निमित्त अपनी धर्मपत्नी से बातचीत करने लगे। (२८९) टीका । कवित्त । (५५४) बैठे कृष्ण रुक्मिनी महले तहाँ सोच पखो, हरयो मन साधुसेवा, साहरूप किया है। पूछी "चले कहाँ ?" कही “भक्त है हमारो एक" "मैं हूँआऊँ?” “आयो,"आये जहाँ पूछि लियो है ॥ “अजू मग चल्यो जात बड़ो उत्पात मधि, कोऊ पहुँचाव, देवी,"लै रुपैया दियो है । “करो समाधान संत, में लिवाइ जाऊँ इन्हें," जाइ बनमाँझ, देखि बहु धन, जियो है ॥ २३६ ॥ (३६३) वात्तिक तिलक। जब घर में कुछ नहीं ठहरा तो आप बड़े विकल हुए । उसी समय श्रीकृष्ण भगवान कामन भी, किजो श्रीदारका के अन्तःपुर में श्रीरुक्मिणी महारानीजी के साथ विराज रहे थे, भक्तजी की ओर खिंचगया कि "हम विश्वम्भर कहलाते हैं और हमारे ही भक्त के पास इस क्षण साधुसेवा के अर्थ कुछ नहीं है।" कहाँ तो श्रीरुक्मिणी महारानीजी की परम प्रीति में मोहित थे, कहाँ भक्त की साधुसेवा-निष्ठा ने भगवान का मन हरलिया। उठते देख महारानीजी ने पूछा कि “चले कहाँ ?" हरि ने उत्तर दिया कि "अमुक स्थान में मेरा एक भक्त है, मैं उसी के यहाँ जाताहूँ।" श्रीजी ने पूछा कि “मैं भी पाऊँ ? (चलूँ)।" इरि ने कहा “प्रायो, चलो।" १"महल"- , अन्त पुर, रनिवास । २ "जियो है" जी गये है, प्राण आए हैं, अत्ति हर्ष को प्राप्त हुए है।