पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४३९

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४२० श्रीभक्तमाल सटीक। +914... . .....10 .4 141944000LI- IMilitaria वात्तिक तिलक । मन्दिर के ऊपर जाके कलस में जो भँवरकली थी, उस मवरकली को दोनों भक्तों ने हाथों से धुमाकर अलग कर दिया, इससे उसमें इतना अवकाश (मार्ग) हो गया कि जिसमें होके सामान्य शरीर- वाला मनुष्य आ जा सके (पर मोटा नहीं)। तब उन्होंने उसी में एक मोटा सा रस्सा छोड़कर ऊपर बाँध दिया, उसी को पकड़ मामा भीतर चला गया, भानजा ऊपर रहा । मामा ने पारसवाली मूर्ति को वन में गठियाके उसी रस्से में बाँध दिया, और भानजे ने उसे खींच लिया। गठरी को रस्सी में से खोल, फिर (और बार)वह रस्सी भीतर छोड़ दी गई, जिसे पकड़के वे (मामाजी) आप भली प्रकार से चढ़ पाए। जव उस छोटे द्वार में प्राधा शरीर निकल चुका तब मामाभक्तजी को अतिशय हर्ष और सुख प्राप्त हुआ कि जिस हर्ष से उनका शरीर फूलकर उसी बिल में फँस बैठा (फँस गया), न इधर सरके न उधर॥ माम ने भानजे से कहा कि “मेरा सीस काट लो, जिसमें सेवड़े लोग वैष्णव वेष की निन्दा न करें, क्योंकि हम दोनों ( मैं और तुम) वैष्णववेष धारण किये इन सबके यहाँ आके शिष्य हुए थे।" तव भानजा अकवार भरके मामाजी को अपने बलभर खींच के निकालने लगा, परन्तु आपके मन में सवाया श्रानन्द बढ़ता ही जाता था इससे शरीर फूल के निकल नहीं सका ॥ (२६६) टीका । कवित्त । (४७७) काटि लियो सीस, ईस-इच्छाको बिचार कियो, जियो नहीं जात तऊ चाह मतिपागी है। "जोपे तन त्याग करौं, कैसे आस-सिन्धु तरी ? ढरौं वाही ओर, आयो, नींव खुर्दै लागी है। भयो शोक भारी, "हमें है गई अवारी, काहू और विचारी," देखें वही बड़भागी है। भरि अकवार मिले, मन्दिर सवारि, मिले, खिले सुखपाइ नैन, जाने जोई रागी है ॥२१५॥ (४१४) १"झिले"-दौड़े, लपके ।