पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४२

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२७ MINSAHARAprHe- Part - MartiniyammanARHMAMInterpme MH- 4-Prammar भक्तिसुधास्वाद तिलक । सेवक प्रिय यह सब की रीती। मोरे अधिक दास पर प्रीती ।। सुनु कपि जिय जनि मानसि ऊना । तैं मम प्रिय लक्ष्मण ते दूना । कोउ मोहि प्रिय नहिं तुमहि समाना। मृषा न कहाँ मोर यह बाना॥ "समदरशी" मोहि कह सब कोऊ । “सेवकप्रिय," अनन्यगतिसोऊ ।। "तेतिस कोटि भ® संसार । खोटा बन्दा खोटी नार॥ खाविन्दों का खाविन्द एक । तिसको जपे यह कबिरा टेक ॥ "सीतापति सेवक सेवकाई । कामधेनु शत सरिस सुहाई ॥" दो० "भजबे को दोई सुधर-(3) की हरि (२) की हरिदास ॥" (३) अथ भक्ति के “वात्सल्य" रस में कुछ वचनः-- चौपाई। "सुत विषयक' हरि पद रति होऊ । मोहि वरु मूढ कहै किन कोऊ ।। देखि “मातु" अातुर उठि धाई । कहि मृदु बचन लिये उर लाई ॥ गोद राखि कराव पय पाना । रघुपति चरित ललित करिगाना ॥" दो पिता विवेकनिधान वर, मातु दया युत नेह । तासु"सुवन" किमिपाइ हैं, अनत अटन तजि गेह ॥ चौपाई। सो० "सुत" "पितु"प्रिय प्राण समाना । यद्यपि सो सब भाँति अजाना ॥ गीत । बूढ़ो बड़ो प्रमाणिक ब्राह्मण शङ्कर नाम सुहायो। मेले चरण चारु चारिउ सुत माथे हाथ दिवायो॥ चौपाई। "सेवक, सुत "पितु मातु" भरोसे । रहै अशोच, बनै “प्रभु” पोसे ॥" "मोहि बरु मूद कहै किन कोऊ । सुतविषयक तव पद रति होऊ ॥" (४) अथ भक्ति के “सख्य" रस में कुछ वचनः-- श्लो. “न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिन शंकरः। न च संकर्षणो न श्री वात्मा च यथा भवात् ॥" (श्री परमहंससहितायां एकादशे, २४ । श्री उद्धवप्रति)