पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४१६

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+44 -- 0In v ita- mantra- भक्तिसुधास्वाद तिलक। "सिलपिल्ले ! सिखपिल्ले ॥” कहके पुकारने से दो कन्याओं के पास भगवान का चले भाना प्रसिद्ध ही है। भक्तों के लिये, अर्थात् सन्त को रखने के हेतु, तथा सन्तों की कुछ काल पर्यन्त सेवा पूजा के अर्थ रानियों ने अपने अपने पुत्र को विष ही दे दिये, श्रीप्रभु ने कृपाकरके उनकी बन्ना (पति) रख ली, तथा उन दोनों की अभिलाष को पूर्णकर पति को और पुत्रों को भी बचा लिया ।। (४३) प्रसादनिष्ठ पुरुषोत्तमपुर-नृपति। (२४३) टोका ! कवित्त । (६००) प्रसाद की अवज्ञा ते तज्यौ नृप कर एक करिक विवेक, सुनौ जैसे वात भई है। खेले भूप चौपरि कौं, आयो प्रभु-मुक्त-शेप, दाहिने में पासे, बाएँ छुयो, मति गई है। लै गए रिसायकै फिराय, महा-दुख पाय, उठ्यो नरदेव, गृह गयो, सुनी नई है। लियो अनसन, “हाथ तजौं याही छन, तव साँचौ मेरो पन," बोलि विप्र पूछि लई है ॥१६३॥ (४३६) वात्तिक तिलक। श्रीजगन्नाथपुरी के महाराज ने श्रीभगवत्मसाद के अपमान के कारण अपना दाहिना हाथ ही कटवाडाला । यह वृत्तान्त जैसे हुमा सो सुनिये । राजा चौपड़ खेलने में निमग्न हो रहा था, उसी समय पण्डाजी श्रीप्रसाद लाए। दक्षिणकर में पासे थे, सो उसने बाएँ ही हाथ से श्रीप्रसाद का स्पशात्मक ग्रहण किया, ऐसी उसकी मति खेलके वश चली गई। इस असह्य अपमान से क्रोध में प्राके, पण्डा श्रीप्रसाद फेर ले गए। राजा उठकर घर आया, वहाँ उसको यह नई बात सुनने में आई कि पण्डा आज प्रसाद पाकशाला में नहीं दे गए । नरपति ने बड़ा दुख पाया, उसको अत्यन्त पश्चात्ताप और ग्लानि हुई, उसने अनसन व्रत लिया, और यह संकल्प किया कि “इसी क्षण इस हाथ को तज दूँ तब तो मेरा भक्तिपन सच्चा।" १"प्रभु-भुक्त-शेप" भगवत् प्रसाद । २ "अनसन"-उपवास ,