पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/४०५

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+14-14++ 414-NH 44 Imनल-4.44444414- श्रीभवतमाल सटीक । सुनि लई यही नेकु, गए उठि, हुती टेक, दुखहूँ अनेक जैसे जल विन मीन है ।।१८४॥ (४४५) वात्तिक तिलक। एकदिन श्रीत्रिलोचनजी की घरनी, अपने एक पड़ोसिन के पास गई थी, उसने पूछा कि "परी सखी। तुम दुवली क्यों हुई जाती हो?" इसने मुसकायके उत्तर दिया कि “वहिन ! वे ( मेरे स्वामी) एक टहलुवा लाए हैं, वह खोटा पाँच सात सेर खाता है तो भी उसका पेटे भरता ही नहीं, उसी के लिये आटा पीसते, रोटी करते मैं पिसी जाती हूँ। इसी से शरीर दुर्वल हो गया है। परन्तु बहिन | यह भेद तुम्हीं से कहती हूँ, तुम अपने मन ही में रखना किसी से कहना नहीं, जो वह सुन पावेगा तो मिनही (सवेरे ही) चल देगा।" फिर क्या था, अन्तर्यामी ने सुना और कपूर से उड़गए। यह तो पहिले ही टेक धरा ली थी कि "भोजन करने की निन्दा होते ही मैं धागे ठहरने का नहीं ॥" - अन्तर्यामी के चले जाने से भक्तराज जलहीन मीन की नाई प्रति विकल हुए। (२३३ ) टीका । कवित्त । ( ६१०) वीते दिन तीनि, अन्न जल करि हीन भये, “ऐसो सो प्रबीन अहो फेरि कहाँ पाइये। बड़ी अभागी! बात काहे को कहन लागी ? रागी साधुसेवा मैं जु कैसे करि ल्याइयें ?"॥ भई नभवानी “तुमखावो पीवो पानी यह मैं ही मति ठानी, मोकौं प्रीति रीति भाइयें । मैं तो हौं अधीन, तेरे घर ही मैं रहीं लीन, जो कहो, सदा सेवा करिबे की आइयें ॥ १८५ ॥ (४४४) ___बात्तिक तिलक । अन्तर्यामी के बिना, श्रीत्रिलोचनजी को अन्न जल बिन तीन दिन व्यतीत हो गये, स्त्री से बोले कि “आह । वैसा प्रवीण सेवक फिर कहाँ मिलने का ? अब मैं साधुसेवा किस प्रकार से करूँ ? पाठान्तर तुम खावो पीवो पानी । “खायो अन्न पीवो पानी" ।।