पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३३५

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श्रीभक्तमाल सटीक । A N . . . . . Munro.14.inm ent भगवान श्रीरामानन्द का समय, 'पन्द्रहवीं शताब्दी लिख चुके हैं। "श्रीराधाकृष्णदास सम्पादित भक्तनामावली" में भी यही वर्णित है। स्पष्ट है कि स्वामी श्री १०८ अप्रदेवजी, विक्रमीय संवत् की सत्रहवीं शताब्दी में विराजते थे। श्री १०८ नामास्वामीजी ने, पहिले चारों भागवत् सम्प्रदायों के चारों वाचायों का वर्णन किया, फिर अपने निज सम्प्रदाय (श्री "श्रीसम्प्रदाय") की वार्चा उठाई, पुनःश्रीगुरुपरम्परा का वर्णन, स्वामी अनन्त श्रीरामानुजजीसे लेके, श्रीअनन्तानन्द द्वारा, अपने गुरु भगवान तक, अर्थात् श्री १०८ अग्रस्वामी जी पर्यन्त गान किया, जय जय जय । जब श्रीगुरुयश गा चुके, तव पुनः पीछे लौटकर, अन सबसे पुराने (कलियुग ३८८६) आचार्य, श्रीशङ्कर स्वामीजी का वर्णन करते हैं- (२८) श्रीस्मा आचार्य श्रीशङ्कर स्वामी। (१६५) छप्पय । (६७८) कलियुग धर्मपालक प्रकट, आचारज शङ्कर सुभट। उतशृङ्खल अज्ञान जिते अनईश्वरवादी । बुद्ध कुतर्की जैन और पाखण्डहि आदी । विमुखनि को दियो दण्ड ऍचि सन्मारग आने । सदाचार की सीव विश्व कीरतिहि बखाने ॥ ईश्वरांश अवतार महि, मरजादा माँडी अघट। कलियुग धर्मपालक प्रकट, आचारज शङ्कर सुभट॥४२॥(१७२) वात्तिक तिलक ! कराल कलियुग में अधर्म और अधर्मियों से धर्म को अर्थात् वर्ण- १"उतशृंखल"-शृखला को उत्सादन करनेवाले।२ "अन्नईश्वरवादी"-वे नास्तिक लोय, कि जो संसार का कती किसी को, ईश्वर नहीं मानते वरन् कहते है कि स्वय स्वभावत सब होता रहता है और विनशता है । ३ "वुद्ध"बौद्ध । ४ "एचि"=खीचकर । ५ "मांडी"= मण्डन किया ।