पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३३२

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g + - ना-- 0India1- 1M t a-manti - mprd++ +dantertainmra भक्तिसुधास्वाद तिलक । निर्मल नाम मनहुँ बर्षत धाराधेर ॥ (श्री) कृष्णदास कृपाकरि भक्ति दत्त, मन वच क्रम करि अटल दयो। (श्री) अग्रदास हरिभजन बिन, काल वृथा नहि वित्तयो॥४॥ (१७३) श्री १०८ अग्रदास स्वामीजी ने श्रीसीतारामजी के भजन बिना किंचित मात्र भी काल व्यर्थ नहीं बिताया। आपका सदाचारकिस प्रकार का था कि जैसा पूर्वाचार्य सन्तों का हुआ करता, और प्रातःकाल से वे पूर्व के महात्मा लोग जैसे सम्पूर्ण भगवत् कर्म कर पाए हैं, वैसे ही आप भी मानसी तथा प्रत्यक्ष सेवा पूजा और नाम रूप गुण स्मरण करते हुए अपने चित्त की वृत्ति सावधानतापूर्वक श्रीयुगलसकार के चरणकमलों में एकरस लगाए रहा करते थे। और जो आपके स्थान के समीप पुष्प फलादि युक्त वाटिका थी उस को "श्रीसीताराम विहारस्थल अशोकवन और प्रमोदवन" ही भावना से मानकर उसमें प्रीति करते थे, सो प्रीति आपकी लोकप्रसिद्ध हो गई.क्योंकि श्राप निज करकमलों से ही उसकी सब कृत्य, अर्थात् श्रीतुलसी आदि चुक्षों का कोड़ना सींचना सूखे पत्रादिकों का बहारना इत्यादि, निरन्तर किया करते थे, और रसना (जिह्वा) से "श्रीसीताराम" निर्मल नाम इस प्रकार से सप्रेम उच्चारण किया करते थे, कि जैसे कोई अलौकिक आनन्द का मेघ मधुर २ शब्द करके बरसता है। स्वामी श्री १०८ अग्रदेवजी की इस प्रकार की वाह्यान्तर प्रेमा परा दशा कैसे न हो ? क्योंकि आपके श्रीगुरुदेव पयोहारी श्रीकृष्णदासजी ने कृपा करके, मन वचन कर्म तीनों प्रकार की भक्तिभाव, अपना सर्वस्व, देके अटल (अचल) कर दिया था। श्रीअग्रदेव स्वामीजी की अष्ट- यामीय भावना-रीति-भक्ति की जय ।। १“धाराघर"-मेघ, जलद । २ "दयो"=दिया । ३ "वित्तयो"-विताया, व्यतीत किया।