पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/३२०

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Homen- भक्तिसुधास्वाद तिलक। कर, गृहस्थाश्रम ही में रहके, आप बड़े महात्मा और परम भक्त हो गए। (१५५) टीका । कवित्तं । (६८) सुत को दिखाई देत भूत, नित सूख्यो जात, पूछे, कही बात, जाइ वाके ठौर सोयो है। थायो निशि मारिवे को पायो यह रोष भलो. "देवो गति मोकों" उनि बोखिकै सुनायो है ॥ "जाति को सोनार पर नारि लगि प्रेत भयों, लयों, तेरी शरण मैं द्वंदि जग पायो हैं। दियो चरणामृत बै, कियो दिव्य रूप वाको अति ही अनूप, सुनो भक्ति भाव गायो है ॥ ११८ ॥ (५११) वात्तिक तिलक। कुछ कालान्तर की बात है कि श्रीरंगजी के पुत्र को एक प्रेत गत में दिखाई देता था, जिसके भय से वह लड़का सूखा जाता था, धापने उससे दुर्वलता का कारण पूछा। लड़के ने बात सव कही। जहाँ वह पुत्र सोता था वहीं स्वयं आप भी जा सोए, प्रेत जिस समय पाया करता था अपने उसी समय पर ग्राही तो पहुँचा। आप क्रोधयुक्त हो, कोई श्रायुध लेके, उसे मारने दौड़े। __उस प्रेत ने कहा कि “मुझे भाप इस दुष्ट योनि से छुड़ाके शुभ गति दीजिये, मैं इसी ग्राम का प्रमुक सोनार था परत्री में प्रीति करने से प्रेत हुआ हूँ। मैं अपनी गति के लिये संसार में ढूँढ़ता ढूँढ़ताआपही को समर्थ जान के शरणागत हुया हूँ।" यह सुनते ही, आपने दया करके श्रीचरणामृत देके उसको उस अधम योनि से छुड़ाके दिव्य रूप कर दिया। आपके पास श्रीपीपाजी भी कृपा करके आए थे सो कथा श्रीपीपा- चरित में आवेगी। सुनिये, श्री श्रीरङ्गजी की भक्तिभाव का अत्यन्त अनूप प्रभाव इस प्रकार से गान किया गया है । और आपके चरित्र बहुत हैं पर यहाँ इतने ही कहे गए॥