पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२७०

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.............. भक्तिसुधास्वाद तिलक .............. २५१ ... ... . ... mere -me- . . साथ लिए चले लखोभक्ति अंग पागी है। देख्यो एक सर, खग रह्यो ध्यान धरि, ऋषि पूई कहो हरि, ह्यो “बड़ो बड़ भागी है" ॥१०३॥(५,२६) वात्तिक तिलक । श्वेतद्वीप के वासी भक्तजन सदा श्रीभगवरूप ही के उपासक हैं वहाँ एक समय ज्ञानोपदेश करने की आशा करके सत्संगविलासी श्रीनारदजी गए, उनके मन की गति जानके प्रभु ने सैन से आज्ञा की कि “इस स्थान में मत आओ, क्योंकि ये भक्त हमारे रूप अनूप ही को देखकर परम आनन्द मानते हैं, और रूप ही के अत्यन्त अनुगगी हैं, इनको अवज्ञान उपदेश का प्रयोजन नहीं है ।" __ यह सुन, उदास होके, श्रीनारदजी फिरे, और श्रीवैकुण्ठनाथ भगवान के यहाँ जाके सब वाचर्चा निवेदन की। भगवान बोले कि "ठीक तो है," और उनको अपने साथ ले चलके कहा कि “चलो, हम दिखा दें कि यथार्थ में उन भक्तों के अंग अंग रोम रोम सब प्रेमभक्ति से पगे हैं।" दोनों श्वेतद्वीप में पहुँचे। वहाँ एक सरोवर में एक भक्त पक्षी प्रभु का ध्यान धरे हुए बैठा था, देखके श्रीनारदजी ने श्रीवैकुण्ठनाथजी से रश्न किया कि "प्रभो ! यह खग ऐसा शान्त क्यों बैठा है ?" श्रीहरि ने उत्तर दिया कि “यह भक्त खग अति बड़भागी है ॥" (१३०) टीका । कवित्त। वरष हजार बीते, भए नहीं चितं चीते, प्यासोई रहत, ऐपै पानी नहीं पीजिये । पावै जो प्रसाद जब जीभ सो सवाद लेत, लेतनहीं और, याकी मति रस भीजिये । लीजै बात मानि, जल पानं करि डारिदियो, लियो चोंच भरि, दृग भरि बुधि धीजिये। अचरज देखि, चप लगै न निमेष किहूँ चहूँ दिशि फिस्यो, अब सेवा याकी कीजिये ।। १०४॥ (५२५) ___वात्तिक तिलक । "नारद ! देखो, इसको एक सहस्र (१०००) वर्ष बीत गए, इसके १ "नही चितचीते"=चित चिन्ता नही, ध्यान न दिया। २ 'लोन निमेष"-एकटक । ३ "चहूँ दिगि फिरयो"परिक्रमा करके, प्रदक्षिणा की।