पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२४२

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भक्तिसुधास्वाद तिलक । २२३ आपने यह बात जानली और अपनी स्त्री से कहा कि तुमने अयोग्य कार्य किया, अब तुम्हारे सतोगुणी पुत्र नहीं होगा, किन्तु राजस- तामस-पति का होगा। पुनः श्रीसत्यवतीजी की प्रार्थना के अनुरूप आपने यह वर दिया कि “अच्छा, पुत्र तो समकृपा से समदर्शी परन्तु पौत्रबड़ा क्रोधी होगा।" इसी आशीर्वाद से पुत्र श्रीसीतारामकृपा से श्रीयमदग्निजी सरिस किन्तु पौत्र परशुरामजी सरीखे हुए, तथा गाधिजी के पुत्र श्रीविश्वा- मित्रजी इव । अस्तु॥ श्रीऋचीक मुनिजी बड़े प्रभावशाली और भगवद्भक्त थे। भापके समागम से गाधिजी भी हरिभक्त हो गए। सर्वया । "संतनको जु प्रभाव है ऐसो॥ जो कोउ श्रावत है उनके ढिग ताहि सुनावत शब्द संदेसो। ताहिको तैसही औषध लावत जाहि कोरोगहि जानत जैसो॥ कर्मकलंकहि काटत हैं सब शुद्ध करें पुनि कंचन पैसो । "सुन्दर" तत्त्व विचारत हैं नित संतन को जुप्रभाव है ऐसो ॥" (१३८) श्रीभृगुजी। श्रीभृगुऋषिजी श्रीनारदजी के उपदेश से बड़े भगवद्भक्त हुए। ये बहुत सी विद्याओं के प्राचार्य है । इन्होंने परीक्षा के अर्थ भगवान् की छाती में लात मारकर ब्राह्मणों की महिमा और भगवत् का अपार सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मण्यदेवत्व यश प्रगट किया है । प्रभु ने इनको त्रिकालदर्शी ऐसा श्राशीष दिया है। श्रीमृगुजी का माहात्म्य प्रगट ही है कि-- श्लो॰"महर्षीणां भृगुरहं, गिरामस्म्येकमधरम् । यज्ञानां जपयज्ञोस्मि स्थावराणां हिमालयः॥१॥" श्रीगीताजी में भगवत् ने श्रीमुख से कहा है कि 'मैं महर्षियों में "भृगु" हूँ, शब्दों में एकाक्षरी मंत्र और रां हूँ, यहों में जपयन हूँ, और पहाड़ों में गिरिराज हिमालय हूँ॥ मापकी भृगुसंहिता प्रसिद्ध