पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२२९

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- - Pre - MH - +++ + २१० श्रीभक्तमाल सटीक । जी, श्रीध्रुवजी, श्रीअम्बरीषजी, महामहिमायुक्त श्रीविभीषणजी, अनु- रागी श्रीअक्रूरजी, सदा प्रेमाधिकारी श्रीउद्धवजी ॥ तात्पर्य यह है कि भगवत् का उच्छिष्ट प्रसाद इन भक्तों को अवश्य अर्पण करना चाहिये, उसमें प्रमाण पद्मपुराण का- श्लो० "बलिविभीषणो भीष्मः कपिलो नारदोऽर्जुनः। प्रह्लादो जनको व्यासो अम्बरीषः पृथुस्तथा ॥१॥ विष्वक्सेनो ध्रुवोऽक्रूरो सनकाद्याः शुकादयः। वासुदेवप्रसादानं सर्वे गृह्णन्तु वैष्णवाः ॥ २॥" १ श्रीशिवजी, | श्रीवलिजी, २ श्रीशुकदेवजी, १० श्रीभीष्मजी, ३ श्रीसनकादिजी, |११ श्रीअर्जुनजी, ४ श्रीकपिलदेवजी, . १२ श्रीध्रुवजी, ५. श्रीनारदजी, १३ श्रीअम्बरीषजी, ६ श्रीहनुमानजी, १४ श्रीविभीषणजी, ७ श्रीविष्वक्सेनजी, १५ श्रीअरजी, ८ श्रीप्रह्लादजी, | १६ श्रीउद्धवजी, (११८ ) छप्पय । ( ७२५ ) ध्यान चतुर्भुज चित धखो, तिन्हें शरण हौं अनुसरौं । अगुस्त्ये पुलस्त्यं पुलहं च्यवन वशिष्ठं सौभरि ऋषि। कई में अत्रि रिचीक गर्ग गौतम सुव्यासशिषि लोमशं भृगु दालभ्य अङ्गिरो शृंङ्गिप्रकासी । मांडव्य विश्वामित्र दुर्वासी सहस अठासी ॥ जावालि यमदग्नि मायादर्श कश्यपैं परवत पराशरै पदरज धरौं । ध्यान चतुर्भुज चित धस्यो, तिन्हैं शरण हौं अनुसरौं ॥ १६॥(१९८) " बात्तिक तिलक। श्रीभगवान के चतुर्भुज रूप का ध्यान जिन भक्त ऋषियों ने अपने चित्त में धारण किया, मैं उनके शरण में प्राप्त हूँ और उन्हीं के चरणों की धरि अपने शीश में धरता हूँ--