पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२२२

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भक्तिसुधास्वाद तिलक। २०३ (११७) श्रीप्रह्लादजी। (११३) टीका । कवित्त । (७३०) सुमिरन साँचों कियो, लियो देखि सबही में एक भगवान कैसे काटे तखार है । काटिवो खड़ग जलवोरिषो सकति जाकी, ताहि को निहारे चहुँोर सो अपार है ॥ पूछेते बतायो संभ, तहाँही दिखायो रूप प्रगट अनूप भक्त बाणीही सो प्यार है । दुष्ट डाखो मारि, गरे भाँतें लई डारि, तऊ क्रोध को न पार, कहा कियो यों विचार है ॥६६॥ (५३०) वात्तिक तिलक । महाभागवताग्रगण्य श्रीमहादजी की कथा "द्वादश भक्त राजों के साथ लिखी जा चुकी हैं । इन्होंने श्रीराम नाम का सच्चा स्मरण किया, जिस स्मरण से इनको पूर्ण परब्रह्म दृष्टि प्राप्त हुई कि जिस दृष्टि से चराचर में एक भगवान ही को देखा। यह भजन और स्मरण देखके भक्कदोही हिरण्यकशिपु ने इनके वध के अनेक प्रयत्न किये, अग्नि में जलाया, जल में डुवाया, तथा खड्ग का प्रहार भी कराया, परन्तु इनको खड्ग कैसे काट सकता था। क्योंकि खड्ग में काटने की शक्ति, अग्नि में जलाने की एवं जल में डवाने की शक्ति जिस परमात्मा श्रीरामजी की है, उन्हीं को श्राप चारो ओर अग्नि जल खड्गादिकों में अपार प्रीति प्रतीति से देखते थे। अन्त में हिरण्यकशिपु ने पूछा कि "तेरा राम कहाँ है ?" तो आपने उत्तर दिया कि “प्रभु सर्वत्र हैं।" दो. “तोंमें मोमें खड्ग में, खम्भहु में हैं राम । मोहिं दीखें, तोहिं नाहि, पितु ! बिना जपे हरिनाम ॥" ऐसा सुन दुष्ट ने पुनः पूछा कि क्या इस खंभे में भी है ?" आपने उत्तर दिया कि "हाँ, निस्सन्देह है" तिस पर, उसने महाकोष करके उस खंभे में एक घूसा (मुष्टिक) मारा ॥ तब अपने भक्त की प्रियवाणी को सत्य करनेवाले प्रभु उसके १"सकति शक्ति । “आगेहु रामहि, पीछेहू रामहि. व्यापक रामहि है वन ग्राम । सुन्दर राम दशोदिशि पूरण स्वर्गहु राम पतालहु रामै ॥"