पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२२१

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२०२ ++ + + + + + + +H- श्रीभक्तमाल सटीक। भी न दिया था सो ) अब पास में रहके श्रीमद्भागवत को पढ़ा। तव संपूर्ण श्रीभागवत में जो श्रीभगवरूप और गुणों का वर्णन था, सो सब इनके मन भरके उसके आनन्द का भार इतना हो गया कि जो किसी प्रकार से सहा नहीं जाता था। ___ एवं, जब ऋषिपुत्र के शाप से राजा परीक्षितजी रान तज के श्रीगंगाकूल में मुनियों के वृन्द समेत सभा में बैठे, और भक्त राजा- जी ठौर ठौर के मुनीश्वरों से अपनी सुगति का उपाय पूछ रहे थे, मुनीश्वरलोग इस विचार के चक्कर (भँवर) में पड़े थे कि राजा को क्या उपदेश देना चाहिये। उसी क्षण उस सभा में, श्रीपरीक्षितजी के भाग्यवश, श्रीशुकदेवजी कि जिनका हृदय श्रीभगवत्प्रेमरस से भीगा हुआ है, सो परोपकारिता की ढरन से ढर के, श्रा पहुँचे और राजा से कहा कि "तुम भगवद्यश सुनो।" यह कह श्री "भागवत कथा गा चले मानो प्रेमरंग की झड़ी सी लगा दी । श्रीभागवत श्रीपरीक्षित महाराज को श्रीशुकजी ने ऐसा सुनाया कि सात ही दिन में महाराज ने परमपद ही तो पा लिया। श्रीव्यासजी तथा सुरगुरु श्रीबृहस्पतिजी की प्राज्ञा से श्रीशुकजी ने विज्ञानसिन्धु श्रीजनकजी महाराज से उपदेश लिया ॥ एक समय किसी तीर्थ पर देवाङ्गनाएँ वचरहित स्नान कर रही थीं परमहंस श्रीशुकदेवजी अकस्मात् उधर ही से जा निकले, उन देवियों ने आपसे तो लज्जा न की, परन्तु व्यासजी को देखते ही शीघ्रता एवं लजापूर्वक वत्र धारण करने लगीं। और व्यासजी की शंका का उत्तर उन बड़भागियों ने यह दिया कि “प्रभो श्राप से अथवा सबसे लज्जा तो सामान्यतः अवश्य है ही, रही वार्ता यह कि परमहंस श्रीशुकदेवजी से लजित क्यों न हुई ? सो उनको तोत्री पुरुष का भेद ही नहीं, वे तो सबको भगवतमय ही देखते हैं, उनको इतनी भी सुधि नहीं कि हमको लज्जा भाई वा नहीं सवन हैं वा नग्न, वे तो भगवडूप में छके केवल उसी में मग्न हैं ।।"