पृष्ठ:श्रीभक्तमाल.pdf/२१५

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MP4HMIngredientM-4 + 4. 4 MMMMAMAt+++ श्रीभक्तमाल सटीक । श्राप कृतयुग से ही श्रीसीतारामदर्शन के लिये तप कर रहे थे। इन्द्र ने बहुत विष्न किये पर श्रीरामकृपा से मुनिजी का मनोरथ सुफल हुआ ही॥ चौपाई। "पुनि पाये जहँ मुनि सरभंगा। सुन्दर अनुज जानकी संगा।" दो. “देखि राम मुख पंकज, मुनिवर लोचन मुंग। सादर पान करत अति, धन्य जनम सरभंग ॥" चौपाई। "कह मुनि सुनु रघुवीर कृपाला। शंकर मानस राजमराला ।। जात रहे विरंचि के धामा । सुनेउँ श्रवन बन अइहहिं रामा ॥ चितवत पंथ रहउँ दिन . राती । अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती ।। नाथ ! सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना ।। सो कछु देव । न मोहि निहोस । निजपन राखेहु जनमन चोरा॥ तब लगि रहहु दीन हित लागी ।जवलगि मिलउँ तुम्हहिं तनुत्यागी॥ जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा । प्रभु कह देह भगति पर लीन्हा॥ एहिविधि सररचि मुनि सरभंगा ।बैठे हृदय बाँड़ि सब संगा।" दो० "सीता अनुज समेत प्रभु, नीलजलद तनु श्याम ! मम हिय बसहु निरंतर, सगुनरूप श्रीराम ॥" चौपाई। "अस कहिजोगअगिनि तनुजारा।राम कृपा बैकुंठ सिधाय॥ तातें मुनि हरि लीन न भयऊ । प्रथमहिं भेद भगति मन दयऊ ॥ ऋषि निकाय मुनिवर गति देखी। सुखी भये निज हृदयविशेखी ॥ प्रस्तुति कहिं सकल मुनि वृंदा । जयति प्रनतहित करनाकंदा ॥" (१०८) श्रीसंजयजी। सत्यवादी हरिभक्त श्रीसंजयजी, महर्षि श्री "व्यास" जी के शिष्य , और राजा "धृतराष्ट्र" के मंत्री तथा पुरोहित थे ।श्रीप्रभुकृपा और 'व्यांसजी के आशिष से इनको दिव्यदृष्टि मिली "श्रीभगवद्गीता" को पहिले श्रीसंजयजी ही ने धृतराष्ट्र से कहा था । महाभारत में